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________________ ४६ जैन संस्कृत महाकाव्य किये जा चुके हैं। छन्दयोजना जैनकुमारसम्भव का छन्द-विधान शास्त्र के अनुकूल है। इसके प्रत्येक सर्ग में एक छन्द की प्रधानता है । उपजाति कवि का प्रिय छन्द है। काव्य में इसीकी प्रधानता है। जैनकुमारसम्भव में उपजाति, अनुष्टुप्, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवजा, रयोदधता, वंशस्थ, शालिनी, वैश्वदेवी, स्वागता, द्रुतविलम्बित, वसन्ततिलका, मालिनी, पृथ्वी, शिखरिणी, मन्दाक्रान्ता, प्रहर्षिणी, हरिणी तथा शार्दूलविक्रीडित ये अठारह छन्द प्रयुक्त हैं। समाजचित्रण जैनकुमारसम्भव का वास्तविक सौन्दर्य इसके वर्णनों में निहित है । इनमें एक ओर कवि का सच्चा कवित्व मुखरित है और दूसरी ओर जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित होने के कारण इनमें समसामयिक समाज की चेतना का स्पन्दन है। इन वर्णनों में तत्कालीन समाज की व्यवस्था, खान-पान, आभूषण-प्रसाधन बादि से सम्बन्धित उपयोगी सामग्री निहित है । विवाह के मुख्य प्रतिपाद्य होने के नाते जैनकुमारसम्भव में तत्कालीन वैवाहिक परम्पराओं का विस्तृत निरूपण हुआ है। यद्यपि काव्य में वर्णित ये लोकाचार हेमचन्द्र के प्रासंगिक विवरण पर आधारित हैं, इन्हें समाज में प्रचलित विवाह-परम्पराओं का प्रतिनिधि माना जा सकता है। ___ वर-वधू के सौन्दर्य को परिष्कृत करने के लिए विवाह से पूर्व उनका प्रसाधन किया जाता था। वरयात्रा के प्रस्थान के समय नारियां मंगलगान करती थीं । वरपक्ष के कुछ लोग, हाथ में खुले शस्त्र लेकर, वर की अगवानी करते थे । घर के मण्डपद्वार पर पहुंचने पर एक व्यवहार-कुशल स्त्री; चन्दन, दूब, दही आदि के अर्ध्य से उसका स्वागत करती थी। अवसर-सुलभ हास-परिहास स्वभाविक था। वहीं दो स्त्रियां मथानी तथा मूसल से उसके भाल का तीन बार स्पर्श करती थीं। तंब वर के सामने नमक तथा आग से भरे दो सिकोरे रखे जाते थे, जिन्हें वह पांवों से कुचल देता था । तत्पश्चात् उसे गले में वस्त्र डाल कर मण्डप में ले जाते थे, जहां उसे वधू के सम्मुख बैठाया जाता था। वधू चूंघट करती थी। वहीं पाणिपीडन होता था । तदनन्तर तारामेलपर्व विधि सम्पन्न होती थी, जिसमें वर-वधू एक-दूसरे ४६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १. २. ८२७-८७६ ४७. तुलना कीजिए-मथा चुचुम्ब बिम्बोष्ठी त्रिलं जगत्पतेः । वही, १.२.८४१ ४८. तटस्त्रटिति कुर्वाणं लवणानलगमितम् । सरावसम्पुटं द्वारि मुमुचुमण्डपस्त्रियः॥ वही, १.२.६३२
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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