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________________ २७ जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि सद्यःस्नाता सुमंगला तथा सुनन्दा की रूपराशि के निरूपण में जयशेखर ने अतीव भावपूर्ण तथा नवीन उपमानों का प्रयोग किया है। शुभ्र परिधान से भूषित उनकी कान्तिमती शरीरयष्टि की स्फटिक के म्यान में स्थित स्वर्णकटारी से तुलना करके तथा उनकी नितम्बस्थली को काम की अश्वशाला कह कर क्रमशः उनकी दीप्ति एवं बेधकता तथा स्थूलता एवं विस्तार का सहज भान करा दिया गया है। तनूस्तदीया ददृशेऽमरीभिः संवेतशुभ्रामलमंजुवासा । परिस्फुटस्फटिककोशवासा हैमकृपाणीव मनोमवस्य ।। ३.६८ त्रिभुवनविजिगीषोर्मारभूपस्य बाह्या वनिरजनि विशाला तन्नितम्बस्थलीयम् । व्यरचि यविह कांचोकिंकिणीभिः प्रवल्ग च्चतुरंगभूषाघर्घरोघोषशंका ॥ ३.७६ प्रसाधन-सामग्री के द्वारा पात्रों का सौन्दर्य उद्घाटित करने की रीति ऋषभ तथा वधुओं की विवाहपूर्व सज्जा में दृष्टिगत होती है । इस सन्दर्भ में मालिश और स्नान से लेकर विभिन्न प्रसाधनों के प्रयोग तथा अंगों पर नाना आकृतियाँ अंकित करने का विस्तृत वर्णन हुआ है। इन प्रसंगों में निस्सन्देह आभूषण आदि अलंकरण अंगविशेष के सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं, किन्तु कवि की कल्पनाशीलता ने उसे दूना कर दिया है। देवांगनाओं ने वधुओं के कपोलों पर कस्तूरी से जो मकरी अंकित की थी उसे देखकर वे स्वयं कामाकुल हो गयीं। कवि की कल्पना है कि मकर अपने स्वामी काम को स्त्रीप्रेम के कारण उनके पास ले आया है। उनके स्तनों पर पत्रावलियाँ चित्रित की गयी थीं। कवि के विचार में काम ने उनके लावण्य की नदी में, 'कुचकुम्भ' लेकर विहार किया था जिससे उन पर पत्रावलियों के रूप में पत्ते चिपक गये हैं । वधुओं के कर्णकूपों को कवि-कल्पना में कमलरूपी कर्णाभूषणों से इसलिये जल्दी-जल्दी ढक दिया गण था कि कहीं युवकों का कामान्ध हृदय उनमें न गिर जाए। चरित्रचित्रण जैनकुमारसम्भव देवी तथा मानवी पात्रों का समवाय है। इसकी कथावस्तु में ऋषभदेव, सुमंगला, सुनन्दा, इन्द्र तथा शची, केवल ये पाँच पात्र हैं। इनमें से शची की भूमिका अत्यल्प है और सुनन्दा की चर्चा समूचे काव्य में एक-दो बार ही ३६..कु. सम्भव, ३.६६-६७,७२.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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