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________________ ४८२ जैन संस्कृत महाकाव्य - १३.६) । उन्हें अपमान कदापि सह्य नहीं है और अपमान का उनका निजी मानदण्ड है । अपमान का प्रतीकार करने के लिये वे व्यक्ति को घोर से घोर विपत्ति में डाल सकते हैं। परन्तु सम्मान करने वाले व्यक्ति पर वे कृपा की वृष्टि कर देते हैं । रुक्मिणी को श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त करना, प्रद्युम्न का पता लगाना तथा उसे द्वारिका लाना उनके लिये ही सम्भव था। नेमिनाथ नेमिनाथ यदुकुलभूषण समुद्रविजय के पुत्र हैं। काव्य में उनका पुराण-प्रसिद्ध चरित वर्णित है। उनकी अवतारणा प्रजा को प्रतिबोध देने के उद्देश्य से हुई है । वैसे भी परम्परा से प्रद्युम्नचरित उनके चरित का अवयव है । वे सांसारिक विषयों से इतने विरक्त हैं कि कृष्ण की पत्नियों तथा अन्य यदुनारियों के उपालम्भ-प्रलोभन भी उन्हें विचलित नहीं कर सके । और जब माता-पिता की इच्छापूर्ति के लिये वे विवाह करना स्वीकार भी करते हैं, तो भावी पशुहिंसा से भीत होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं । वे नैतिकता के संरक्षक तथा काव्य के सूत्रधार हैं। प्रायः सभी पात्र उनसे बोध 'पाकर संयम का सुख प्राप्त करते हैं। स्वयं नेमिनाथ कैवल्य और निर्वाण का परम पद प्राप्त करते हैं। रुक्मिणी तथा सत्यभामा नारी पात्रों में केवल रुक्मिणी तथा सत्यभामा के चरित्र की कुछ रेखाएँ उभर सकी हैं। वे दोनों रूपवती युवतियाँ हैं। रुक्मिणी का तो चित्र देखने मात्र से कृष्ण कामातुर हो जाते हैं। नारद को विश्वास है कि विधाता ने उसे कृष्ण के लिये ही बनाया है (३.३६) । वह भी उनके गुणों पर मुग्ध है और दूत के द्वारा उनसे, उसे शिशुपाल के चंगुल से उबारने का निवेदन करती है । वह काव्यनायक की जननी है । प्रद्युम्न के अपहरण से उसका मातृत्व चींख उठता है। कृष्ण उसके प्रेम में लीन होकर सत्यभामा आदि अन्य पत्नियों को भूल जाते हैं। इसीलिये सत्यभामा के चरित में सौतिया डाह का गहरा पुट है। यह बात भिन्न है कि प्रद्युम्न उसकी सब चालें विफल कर देता है । उसकी प्रद्युम्न के समान तेजस्वी पुत्र पाने की अभिलाषा भी अधूरी रह जाती है। गौण पात्रों में विदर्भ के राजकुमार रुक्मी में सौन्दर्य तथा शौर्य का राजोचित समन्वय है । इक्ष्वाकुवंशी बालकों का पराक्रम जन्मसिद्ध है। उसके विचार में कवचधारी पुत्र के होते हुए पिता का शस्त्र उठाना पुत्र के लिए लज्जाजनक है (२.१०४-१०६) । राजीमती को नेमिनाथ की सहमिणी बनने का सौभाग्य मिलने लगा था पर उनके विचार-परिवर्तन ने उसकी आशा पर पानी फेर दिया। वह नेमिनाथ को हृदय से स्वीकार कर चुकी थी, अत: उसके लिए वे ही वर और गुरु हैं। रथनेमि के कामाकुल प्रलोभन और सखियों के परामर्श भी उसे विचलित नहीं
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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