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________________ ४७४ जैन संस्कृत महाकाव्य प्राप्ति आदि के प्रसंगों में उसकी सामान्य अभिव्यक्ति हुई है। काव्य के वर्तमान वातावरण में शायद शान्तरस की सर्वातिशायी निष्पत्ति करना सम्भव भी नहीं है। प्रद्युम्नचरित में शान्तरस की प्रमुखता की सार्थकता इसी में है कि इसकी परिणति वैराग्य में होती है जिसके फलस्वरूप प्रद्युम्न जैसा उद्धत योद्धा तथा पाण्डवों जैसे दुर्द्धर्ष वीर भी संयम के द्वारा निर्वाण का परम पद प्राप्त करते हैं । मरणासन्न कृष्ण की यह संक्षिप्त उक्ति मनुष्य की असहायता तथा जगत् एवं उसके वैभव की भंगुरता का तीव्र बोध कराने में समर्थ है।। एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन्नाहमपि कस्यचित् । एवमदीनचित्तश्च चकाराराधनं हरिः ॥ १६.१७७ प्रद्युम्नचरित में शान्त की तुलना में वीररस की कहीं अधिक व्यापक तथा प्रगाढ़ निष्पत्ति हुई है। अनगिनत छिट-पुट संघर्षों के अतिरिक्त शिशुपाल, जरासंध तथा पद्मनाभ के साथ कृष्ण के घनघोर युद्धों में वीररस की उल्लेखनीय गहनता है । काव्य के इन भागों को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है कि यह आमूलचूल वीररसप्रधान काव्य है । यदि इसे अंगी रस का बाधक माना जाये तो अनुचित्त न होगा। वीररस के चित्रण की रत्नचन्द्र की खास शैली है, जिसे पौराणिक अथवा धार्मिक कहा जा सकता है । कृष्ण और जरासन्ध का युद्ध दो दुर्दमनीय शत्रुओं का युद्ध नहीं, वह दो विरोधी प्रवृत्तियों के संघर्ष का प्रतीक है। उनमें कृष्ण का पक्ष सत्प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि है, जरासन्ध का पक्ष असत् का प्रतीक है। कृष्ण पक्ष की इस श्रेष्ठता के कारण उसकी विजय अपरिहार्य है। शकुनि की शरवर्षा, सहदेव के पराक्रम के कारण नहीं बल्कि उसके पुण्य के प्रभाव से विफल हो जाती है ।२० प्रतिविष्णु जरासन्ध का विष्णु कृष्ण द्वारा वध भी पूर्व निश्चित है। इसीलिये कृष्ण जरासन्ध के चक्र के प्रहार को ऐसे झेलते हैं जैसे वह अस्त्र न हो परन्तु उसी चक्र से वे तत्काल जरासन्ध का शिरश्छेद कर देते हैं । पुण्योदय से परायी वस्तु अपनी हो जाती है ।२२ इस युद्ध की विशेषता यह है कि इसमें 'जीवहिंसा से पराङ्मुख' नेमिनाथ भी तत्परता से भाग लेते हैं, इसके पीछे भले ही मातलि का प्रोत्साहन तथा प्रेरणा और व्यवहार के परिपालन की भावना हो (१०.२२८) । लाखों योद्धाओं को धराशायी करके वे इस प्रकार निश्चित खड़े हो जाते हैं मानों हिंसा उनके व्यक्तित्व का सहज अंग हो। पद्मनाभ तथा कृष्ण का युद्ध भी सदसत् के इसी द्वन्द्व की व्याख्या है। उनके २०. मोघीबभूवुः सर्वेऽपि परं पुण्यप्रभावतः । वही, १०.१०२ २१. एकोऽपि विष्णुः स्याद् हन्ता प्रतिविष्णोरिति स्थितिः। वही, १०.२७० २२. सति पुण्योदये सर्वमात्मीयं स्यात् परस्य हि । वही, १०.२६५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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