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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य ४७२ गया है । रत्नचन्द्र ने, अपने उद्देश्य से भटककर, प्रद्युम्नचरित का इसी रूप में प्रतिपादन किया है, इसका संकेत ऊपर किया जा चुका है। हेमचन्द्र के आकर-ग्रन्थ के प्रासंगिक प्रकरण तथा प्रद्युम्नचरित में इतना घनिष्ठ साम्य है कि दोनों का तुलनात्मक विमर्श निरर्थक होगा, किन्तु कुछ भिन्नताओं की चर्चा आवश्यक है । प्रद्युम्नचरित के अनुसार रुक्मिणी दूत भेजकर कृष्ण से, उसे शिशुपाल से बचाने की प्रार्थना करती है ( ३.४८.४६८ ) । त्रि. श. पु. चरित में रुक्मिणी के चित्रांकित रूप पर रीझ कर कृष्ण एक दूत के द्वारा रुक्मी को उनके साथ अपनी बहिन का विवाह करने को प्रेरित करते हैं । रुक्मी कृष्ण के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है और शिशुपाल के साथ उसका विवाह करने का निश्चय करता है । हेमचन्द्र के विवरण में रुक्मिणी स्वयं नहीं बल्कि उसकी बुआ कृष्ण के पास सन्देश भेजती है । " त्रि. श. पु. चरित में, पूर्व निश्चित योजना अनुसार, रुक्मिणी, अपनी बुआ की सहमति से कृष्ण के रथ में स्वयं बैठ जाती है । उनके प्रस्थान के बाद उसकी बुआ तथा दासियाँ अपना दोष छिपाने के लिये कृष्ण तथा बलराम पर रुक्मिणी के अपहरण का दोष लगाती हैं? जबकि प्रद्युम्नचरित में बलराम उस कोमलांगी को रथ में बैठाते हैं और स्वयं कृष्ण रुक्मिणी हरण की घोषणा करते हैं ( ४.३७ - ४५ ) । प्रद्युम्नचरित में कृष्ण द्वारिका के निकटवर्ती उद्यान में रुक्मिणी से विधिवत् पाणिग्रहण करने के पश्चात् नगर में प्रवेश करते हैं (४.११०-१११, १२१) | हेमचन्द्र के काव्य में उनका विवाह नगर में सम्पन्न होता है ।" प्रद्युम्न के अपहरण'अ, उसके पूर्वभवों और धूमकेतु के साथ उसके वैर के कारण का दोनों काव्यों में समान वर्णन है । त्रि.श. पु. चरित में उन सौलह विपत्तिजनक परीक्षाओं का उल्लेख नहीं है. जिनमें प्रद्युम्न को डालकर कालसंवर के पुत्र उसे नष्ट करने का षड्यन्त्र बनाते हैं ।" रत्नचन्द्र को इनका संकेत उत्तरपुराण से मिला ६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अंग्रेजी अनुवाद), भाग ५, गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज, संख्या १३६, बड़ौदा, १९६२, पृ० १८१ १०. वही, पृ. १८२ १९. वही, पृ. १८२ १२. वही, पृ. १८४ १२ अ. उत्तरपुराण के अनुसार शिशु प्रद्युम्न का अपहर्त्ता धमकेनु पूर्वजन्म का कनकरथ है । वह अन्तःपुर के सब लोगों को महानिद्रा से अचेत बनाकर प्रद्युम्न को उठा ले जाता है और उसे खदिर अटवी में तक्षक शिला के नीचे रख देता है । उत्तरपुराण, ७२.५१-५३ । १३. प्रद्युम्नचरित, ५.५४-२६२; त्रि. श. पु. चरित (पूर्वोक्त), पृ. १६४-१६७ । १४. त्रि.श. पु. चरित ( पूर्वोक्त), पृ. २०४-२०५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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