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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य अतिरिक्त कुछ नही है " । जीवन का सार संयम में निहित है। माता-पिता का आग्रह तथा पत्नियों का अनुनय भी उसे अभीष्ट मार्ग से विचलित करने में असफल रहता है । विद्युच्चर का 'द्वयं प्राप्य न भुंजीत यः स दैवेन वंचित' का तीर भी व्यर्थ जाता है । अन्ततः उसे तपश्चर्या से परम पद की प्राप्ति होती है । अन्य पात्र अर्हास राजगृह का धनी व्यापारी तथा पुत्रवत्सल पिता है । मुनिवर से अपनी पत्नी के गर्भ से अन्तिम केवली के जन्म की भविष्यवाणी सुनकर उसके आनन्द का पारावार नहीं रहता । वह रीतिपूर्वक नवजात शिशु के जातकर्म आदि संस्कार करता है । पुत्र के प्रव्रज्या ग्रहण करने से वह शोक में डूब जाता है । उसकी पत्नी जनमतीको अन्तिम केवली की जननी होने का गौरव प्राप्त है । वे दोनों ही भवबन्धन से बचने के लिये तापसव्रत ग्रहण करते हैं । 1 ४५८ जम्बूस्वामी की पत्नियाँ यौवनसम्पन्न सुन्दरियाँ हैं । उनकी पतिपरायणता आश्चर्यजनक है । जम्बू के साथ विवाह निश्चित होने के उपरान्त उन्हें किसी अन्य से विवाह करने का प्रस्ताव भी सह्य नहीं है । वे अपने संयमधन पति को रूपपाश में बांधने का पूर्ण प्रयत्न करती हैं । इसमें यद्यपि उन्हें सफलता नहीं मिलती किन्तु उनकी पति-निष्ठा में कोई अन्तर नहीं आता। पति के चारित्र्यव्रत लेने पर उनका प्रेमिल हृदय हाहाकार कर उठता है । विद्युच्चर राजगृह का कुख्यात चोर है । वह जम्बूकुमार को वैराग्य से विरत कर सांसारिक सुख-भोगों में प्रवृत्त करने का प्रबल प्रयास करता है, किन्तु उसके संवेग से द्रवित होकर स्वयं मुनिव्रत ग्रहण करता है और तपोबल से सिद्धि प्राप्त करता है । समाज-चित्रण जम्बूस्वामिचरित में प्रसंगवश कुछ सांस्कृतिक सामग्री समाविष्ट है, जिसके विश्लेषण से तत्कालीन समाज के कतिपय पक्षों की कमबेश जानकारी मिलती है । आर्यवसु के पुत्रों की शिक्षा के सन्दर्भ में जिस पाठ्यक्रम का उल्लेख है, उससे विदित होता है कि उस समय वेद-शास्त्र के अतिरिक्त व्याकरण, वैद्यक, तर्क, छन्द, ज्योतिष् संगीत तथा अलंकारशास्त्र अध्ययन के विषय थे । यद्यपि ये विषय ब्राह्मणों के लिये निर्धारित थे किन्तु इन्हें तत्कालीन शिक्षा का सामान्य पाठ्यक्रम मानने में कोई हिचक नही हो सकती । क्षत्रियों के लिये शस्त्रविद्या का विधिवत् अभ्यास अनिवार्य था। धान्यभेदों की सूची में षष्ठिका (सांठी), कलम तथा व्रीहि विभिन्न प्रकार ३१. वही, ११.३-५ ३२. वही, ३.८१-८३ ३३. वही, ४.६३-६४
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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