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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य महाराज श्रेणिक का गजराज, संग्रामशूर, श्रृंखला तोड़ कर भाग जाता है । उसके उत्पातों से भीत सैनिकों के वर्णन में भयानक रस की उत्पत्ति हुई है । श्रेणिक के शूरवीर योद्धा हाथी की दुश्चेष्टाओं से इतने विचलित हो जाते हैं कि उसे वशीभूत करने का कोई प्रयास तक नहीं कर सका । यतस्ततः पलायन्तस्तत्र केचिद् भयातुराः ૪૫૪ कातरत्वं समादाय न पुनः सन्मुखं ययुः ।। ६.७३ भाव्यमद्य किमत्राहो चिन्तयन्तो भटा अपि । न क्षमाः सन्मुखं गन्तुं बन्धनायाशु दन्तिनः ।। ६.७५ गौरमास्यं सुयोद्धारः पश्यन्ति स्म परं परम् । विमनस्का भुस्तत्र निरुत्साहा निरुद्यमाः ।। ६.७६ इस संग्रामशूर के क्रोधावेश का चित्रण रौद्ररस की निष्पत्ति करता है । अपनी भयंकर गर्जना से सबको डराता हुआ तथा सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट करता हुआ वह पर्वताकार हाथी साक्षात् यम का अवतार प्रतीत होता है । अंजनाद्रिसमो दन्ती चलत्कर्णप्रभंजनः । स्थूलकायः कृतांताभो नवाषाढपयोदवत् ॥ दन्तावलोऽथ दन्ताग्रैरुत्खनन् पृथिवीतलम् । शुण्डादण्डेन तत्रोच्चैरुद्गिरन् वारिसंचयम् ॥ उच्चखान वनं सर्वं रौद्रश्चातिभीषणः । उच्छिन्दन् तरुमूलानि मूलोन्मूलमितस्ततः । ६.६३-६५ २५ जम्बूस्वामिचरित में अद्भुत, " बीभत्स तथा वात्सल्य रसों का भी यथोचित परिपाक मिलता है । प्रकृति-चित्रण जम्बूस्वामिचरित की कथावस्तु कुछ ऐसी है कि उसमें प्रकृति-चित्रण के लिए अधिक स्थान नहीं है । परन्तु राजमल्ल ने काव्य में यथास्थान प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन के द्वारा प्रकृति के प्रति अपने नैसर्गिक अनुराग का परिचय दिया है आकार में परिमित होता हुआ भी राजमल्ल का प्रकृति-चित्रण उस रीतिबद्ध युग में ताज़गी का आभास देता है । जम्बूस्वामिचरित में बहुधा प्रकृति के आलम्बन पक्ष का तत्परता से वर्णन किया गया है । कालिदासोत्तर कवियों की प्रकृति के स्वाभाविक चित्रण से विमुखता को देखते हुए जम्बूस्वामिचरित के रचयिता की यह प्रवृत्ति वस्तुत: अभिनन्दनीय है । वर्षा ऋतु के वर्णन में प्रकृति-चित्रण की यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती २६. वही, २.२४८- २५१ २७. वही, ३.८७ २८. वही, ५.१३३
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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