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________________ जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल ४५ १ उत्तरपुराण के अनुसार जम्बूस्वामी को बारह वर्ष की तपश्चर्या के पश्चात् केवलज्ञान और उसके बारह वर्ष बाद निर्वाण की प्राप्ति हुई थी ( ७६.११८-११९) । राजमल्ल ने यह अवधि अठारह वर्ष दी है । सौधर्म मुनि के विपुलाचल से मोक्षगमन के अर्द्धयाम के व्यवधान से जम्बूस्वामी में कैवल्य की स्फुरणा हुई थी । अठारह वर्ष तक निरावरण ज्ञान से धर्मदेशना करने के पश्चात् उन्हें विपुलाचल के उसी स्थान परनिर्वाण प्राप्त हुआ, जहाँ उनके गुरु निर्वाण को गये थे ( १२.१०६-१२१) । रस चित्रण जम्बूस्वामिचरित की रचना सहृदय को रसचर्वणा कराने के लिये नहीं हुई है । यह भावना तथा उद्देश्य दोनों दृष्टियों से, शुद्धतः प्रचारवादी कृति है, जिसका लक्ष्य अन्तिम केवी के सर्वत्यागी तथा संयमी चरित के द्वारा विषयासक्त जनों को, भोगों की नश्वरता और नीरसता का भान करा कर संयम की ओर उन्मुख करना है । परन्तु राजमल ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति इस कौशल से की है कि उसका काव्य तीव्र रसात्मकता से सिक्त हो गया है। उसने स्वयं नौ काव्य - रसों का साभिप्राय उल्लेख किया है (वधा रस :- १.२४ ) । और जम्बूस्वामिचरित में प्रायः सभी रसों के यथेष्ट पल्लवन के द्वारा अपने सिद्धांत की व्यावहारिक व्याख्या की है। पौराणिक महाकाव्य के लेखक के लिये यह प्रशंसनीय उपलब्धि है । वैराग्य की प्रधानता के कारण जम्बूस्वामिचरित में अंगी रस के रूप में, शान्तरस का परिपाक हुआ है । सागरचन्द्र की संवेगोत्पत्ति, वैराग्यविरोधी तर्कों को खंडित करने वाली शिवकुमार की युक्तियों, जम्बूकुमार की विवाहोपरान्त मनोदशा तथा अनित्यानुप्रेक्षा के प्रतिपादन आदि में शान्तरस की उद्दाम धारा प्रवाहित है । काव्य में शान्तरस का चित्रण इस दुतता तथा गम्भीरता से किया गया है कि इसके परिशीलन के पश्चात् पाठक के मन में जीवन तथा जगत् की अनित्यता, विषयों की छलना आदि भावनाओं का अनायास उद्रेक हो जाता है और वह आपातरम्य भोगों से विमुख होकर, संयम एवं त्याग में जीवन की सार्थकता खोजने को प्रेरित होता है । यह कवि केशान्तरस-चित्रण की दक्षता का प्रबल प्रमाण है । इस दृष्टि से अनित्यानुप्रेक्षा का प्रस्तुत विश्लेषण उल्लेखनीय है । जीवितं चपलं लोके जलबुद्बुदसन्निभम् । रोगः समाश्रिता भोगा जराक्रान्तं हि यौवनम् ॥ १३.१३ सौन्दर्यं च क्षणविध्वंसि सम्पदो विपदन्तकाः । मधुबिन्दूपमं पुंसां सौख्यं दुःखपरम्परा ।।१३.१४ इन्द्रियारोग्यसामर्थ्यचलान्यभ्रोपमानि च । इन्द्रजाल समानानि राजसौधधनानि च ॥ १३.१५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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