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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य गगनगति की इस गर्वोक्ति के कारण कि मृगांक ने भी जम्बूकुमार तथा रत्नचूल के युद्ध में पौरुष का प्रदर्शन किया था, रत्नचूल क्रोध से बौखला उठता है । मृगांक को जीतने में असफल होकर वह उसे बांधकर, विजय के गर्व से प्रस्थान करने ही वाला था कि कुमार उसे ललकारता है । फलतः दोनों में द्वन्द्वयुद्ध ठन जाता है । जम्बूकुमार शक्तिशाली रत्तचूल को पराजित करके मृगांक को बन्धन से मुक्त करता है । इस साहसिक विजय के कारण कुमार का अभूतपूर्व स्वागत किया जाता है तथा श्रेणिक को केरलराज की पुत्री विशालवती प्राप्त होती है। नवें सर्ग में, जम्बू में, मुनि सौधर्म की देशना से, निर्वेद का उदय होता है, किन्तु माता-पिता के आग्रह से वह विवाह के एक दिन बाद दीक्षा लेना स्वीकार कर लेता है । नगर की चार रूपवती कन्याओं के साथ उसका विवाह सम्पन्न होता है । शयनगृह में वह वीतराग, तरुणियों के बीच 'पद्मपत्रमिवाम्भसा' अलिप्त रहता है । दसवें तथा ग्यारहवें सर्ग में क्रमशः नवोढा वधुएँ और विद्युच्चर चोर, उपलब्ध सुख-वैभव को छोड़कर सन्दिग्ध वैराग्य-सम्पदा प्राप्त करने के उसके प्रयास का, आठ कथाओं के द्वारा मजाक उड़ाते हैं तथा उसे विषयों में आसक्त करने का प्रयत्न करते हैं । वह उनके प्रत्येक तर्क का दृढतापूर्वक खण्डन करता है । बारहवें सर्ग में गृहपाश से छूटकर जम्बूस्वामी तापसव्रत ग्रहण करते हैं और घोर तपश्चर्या के उपरान्त शिवत्व प्राप्त करते हैं । अर्हदास और जनमती ने भी संलेखना से देवत्व प्राप्त किया । यहीं जम्बूस्वामी की कथा समाप्त हो जाती है । तेरहवें सर्ग में बारह अनुप्रेक्षाओं का निरूपण तथा विद्युच्चर की सिद्धिप्राप्ति का वर्णन है । यह कथानक की उत्तरपीठिका है । ४४८ जम्बूस्वामचरित के कथानक के सूत्र अत्यन्त शिथिल हैं । प्रथम चार सर्गो का मूल कथावस्तु के साथ अत्यन्त सूक्ष्म, लगभग अदृश्य सम्बन्ध है । इन्हें आसानी से छोड़ा जा सकता था । कथानक के पूर्वापर का मूल तक सविस्तार वर्णन महाकाव्य की अन्विति को भंग करता है । काव्य के मूल भाग को भी प्रबन्धत्व की दृष्टि से सफल नहीं कहा जा सकता । कथानक के बीच वर्णनों और अवान्तर कथाओं के ऐसे अवरोध खड़े कर दिये गये हैं कि कहीं-कहीं तो वह सौ-सौ पद्यों तक एक प भी आगे नहीं बढ़ता । इस दृष्टि से दसवाँ तथा ग्यारहवाँ सर्ग कथा प्रवाह के मार्ग में विशाल सेतुबन्ध हैं । अन्यत्र भी कवि अधिकतर विषयान्तरों के मरुस्थल में भटकता रहा है । काव्य में अनुपातहीन अवान्तर कथाएँ कथानक को किस प्रकार नष्ट कर सकती हैं, जम्बूस्वामिचरित इसका उत्कृष्ट उदाहरण है । और नायक की निर्वाण-प्राप्ति के पश्चात् काव्य को एक सर्ग तक और घसीटना सिद्धान्त तथा व्यवहार दोनों की अवहेलना है । यह सच है कि जैन साहित्य में जम्बूस्वामी की कथा इसी रूप में प्रचलित है किन्तु 'कार्य' की पूर्ति से आगे बढना महाकाव्यकार के लिये कदापि वांछनीय नहीं है ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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