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________________ ४३६ जैन संस्कृत महाकाव्य तथा रसवत्ता पर आधारित है। काव्य में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है, वह सच्चे अर्थ में सरल है । काव्य को लोकगम्य बनाने की व्यग्रता के कारण कवि ने भाषा की शुद्धता की ओर भी अधिक ध्यान नहीं दिया है। मूच्चि तान्ये (१.२८८), न इति वक्तुम् (३.२८७), धार्यते मूर्टिन (१.४१५), न्यष दंश्च (२.५६), राज्यभार सुतस्यादात् (२.६४), उत्ततार तुरंगात् स्म (३.८७), गान्ति स्म (४.२६६), महाराज्ञः, रुरुचेऽस्य आदि अपाणिनीय प्रयोग निश्चिन्तता से किए गए हैं । छन्दपूर्ति के लिये शब्दों के वास्तविक रूप को विकृत करने में भी कवि ने संकोच नहीं किया है। द्विप को द्वीप (१.३७७), द्वीप का द्विप (१.२५), तथा षडाः और गूढगर्भा को क्रमशः षडरका: (१.३०) तथा गढ गरभा (४.१०६) बना देना इसी छन्दीय अनुरोध का परिणाम है। इसे भाषाविज्ञान की शब्दावली में स्वरागम कहा जाएगा किन्तु ये विचित्र पद छन्द-प्रयोग में कवि की असमर्थता प्रकट करते हैं, यह निर्विवाद है । पार्श्वनाथचरित में उस दोष को भी कमी नहीं, जिसे काव्यशास्त्रियों ने 'अधिक' नाम दिया है । 'उत्संगसंगसंगतविग्रहो' (१.११६), में 'संग' के, 'ध्यानं ध्यायन्तः' (४.२८०) में 'ध्यानम्' के तथा 'उपभूपमुपेयिवान्' (३.२२३) में 'उप' के प्रयोग के बिना भी अभीष्ट अर्थ का बोध होता है। हेमविजय का उद्देश्य अपने आराध्य के गुणगान से निर्वाण का सुख प्राप्त करना है । उसके लिये भाषा का महत्त्व माध्यम के अतिरिक्त कुछ नहीं। किन्तु जन्म-जन्मान्तरों की नाना स्थितियों से सम्बन्ध होने के नाते पार्श्वनाथचरित की भाषा विविध भावों की व्यंजना करने में समर्थ है और उसकी सहज् ता तथा सुबोधता पौराणिक वृत्त को नीरसता से बचाए रखती है । प्रभावती के पूर्वरा के मनोवैज्ञानिक चित्रण में जो भाषा प्रयुक्त की गयी है, उससे उसकी तल्लीनता, विवशता तथा विकलता साकार हो गयी हैं। तल्लीनमानसा नित्यं ध्यानरूढेव योगिनी । अस्मार्षीत् पार्श्वकुमारं सावज्ञातसुखस्मृतिः ॥४.५१८ स्थिता जागरिता सुप्ता गच्छन्ती प्रलपन्त्यपि । सैवं पार्श्वगुणग्रामोत्कीर्तनं कृतवत्यभूत् ॥४.५२०॥ यान्तु यान्त्विति जल्पन्ती प्राणान्नपि रिपूनिव । उद्वेगमत्यगाद् बाला मरुप्राप्तेव हस्तिनी ॥४.५२२ इन पंक्तियों में उस नवयौवना बाला के हृदय की टीस मुख है। उसे सारा संसार पार्श्वमय दिखाई देता है । वह उसके रोम-रोम में रम चुका है। इस कोमल २६. निर्वर्ण्यणिनी कर्ण्यपदन्यासा रसामृता। कुलांगनेव सार्वशी गौरवं गौस्तनोतु नः ॥ पार्श्वनाथचरित, १.७
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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