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________________ पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि ४२६ वात्सल्य आदि रसों का भी यथेष्ट परिपाक हुआ है । श्रृंगार शान्तरस का विरोधी ध्रुव है। काव्य में उसके चित्रण के लिये अधिक स्थान भी नहीं है, किन्तु शान्त की भाँति शृंगार को पल्लवित करने में हेमविजय की सिद्धहस्तता निर्विवाद है। उसकी तूलिका ने काव्य में शृंगार के उभय पक्षों के प्रभावी चित्र अंकित किये हैं। कमठ और वसुन्धरा के रमण तथा पार्श्व एवं प्रभावती की विवाहोपरान्त विलास-क्रीड़ा में सम्भोग-शृंगार का सफल परिपाक हुआ है। कमठ तथा व्यभिचारिणी वसुन्धरा की अवैध रति में शृंगार के सम्भोग पक्ष की प्रगाढता उल्लेखनीय है। ततस्तौ निर्भयं भावनिर्भरौ रहसि स्थितौ । रेमाते काममुद्दामकामयामिकबोधितौ ॥ १.११५ कदाचिद् विरलीभूतौ लक्ष्मी-लक्ष्मीपती इव । एकीभूतौ कदाचिच्च गौरी-गौरीपती इव ॥ १.११७ हास्यरुल्लासितानंगविभ्रमौ शुभ्रविभ्रमो। चिरं चिक्रीडतुः कामकिंकराविव निस्त्रपौ ॥ १.११८ राजकुमारी प्रभावती के पूर्वराग के चित्रण में विप्रलम्भ की व्यथा है। काव्य में यही एक स्थल है, जहाँ विपलम्भ-शृंगार का निरूपण हुआ है, किन्तु संक्षिप्त होता हुआ भी यह अपनी सूक्ष्मता तथा पैनेपन के कारण हृदय के अन्तराल में पैठने की क्षमता रखता है। किन्न र-युगल से युवा पार्श्व के सौन्दर्य तथा गुणों का वर्णन सुनकर प्रभावती कामातुर हो जाती है। पार्श्व के बिना उसे कहीं भी कल नहीं है। विरह के प्रहार ने उसे जर्जर कर दिया है। सा कन्याऽनंगसंसर्गाद् नानावस्थामुपेयुषी। रति कुत्रापि न प्राप मत्सीव स्वल्पपाथसि ।। ४.५१२ क्षणं बहिः क्षणं मध्ये क्षणं चोवं क्षणं त्वधः। कुविन्ददयितेवैषा नैकां स्थितिमुपागमत् ॥ ४.५१३ शृंगार के समान वीररस भी शान्त का प्रतिद्वन्द्वी है । काव्य में 'वीरहीराणां दोर्बलं बलम्' (४.५४३) की गूंज अवश्य सुनाई पड़ती है, परन्तु जैन कवि की अहिंसावादी वृत्ति को युद्ध अथवा उसकी हिंसा कदापि सह्य नहीं है । अतः उसने जानबूझ कर एक ऐसा अवसर हाथ से खो दिया है जहाँ वीररस की सशक्त अभिव्यक्ति हो सकती थी । कलिंगराज राजकुमारी को बलात् प्राप्त करने के लिये प्रसेनजित् की राजधानी पर धावा बोल देता है । वह दूत के शान्तिप्रयास को भी वीरोचित दर्प से ठुकरा देता है किन्तु पार्श्व की दिव्यता से अभिभूत होकर वह सहसा घेरा उठा लेता है । यह युद्ध का उन्नयन नहीं, उसका परित्याग है । इसका एकमात्र कारण संयमधन कवि की युद्ध के प्रति संस्कारगत घृणा है।। रौद्र, भयानक तथा वात्सल्य रसों के चित्रण में हेमविजय की कुशलता
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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