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________________ ४२६ जैन संस्कृत महाकाव्य ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित का इस निष्ठा से अनुगमन किया है और हेमचन्द्र के भावों को इस उदारता से ग्रहण किया है कि उनका पार्श्वनाथचरित, त्रि० श० पु० चरित के सम्बन्धित प्रकरण का अभिनव संस्करण बन गया है और वह कवि की इस प्रतिज्ञा--चरित्रं पार्श्वदेवस्य यथादृष्टं प्रकाश्यते (१.२४)- की पूर्ति करता है। अन्तर केवल इतना है कि हेमविजय ने त्रि० श० पु० चरित के पार्श्वचरित को स्वतन्त्र महाकाव्योचित विस्तार के साथ ३०४१ पद्यों के तिगुने कलेवर में प्रस्तुत किया है। आकार में यह वृद्धि कथानक के अंगभूत अथवा अवान्तर प्रसंगों के सविस्तार वर्णन से सम्भव हुई है। उदाहरणार्थ त्रि० श० पु० चरित में सुवर्णबाहु की षट्खण्डविजय का एक पंक्ति में संकेत मात्र किया गया है। हेमविजय ने इस विजय का पूरे २२८ पद्यों में विस्तृत वर्णन करके मूल कथानक की भूमिका के इस अंश को अनावश्यक महत्त्व दिया है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि स्वर्णबाहु की विजय का यह वर्णन चक्रवर्ती भरत की षट्खण्डविजय पर आधारित है, जिसका हेमचन्द्र ने अपने काव्य के प्रथम पर्व में सविस्तार निरूपण किया है। इसी प्रकार शिशु पार्श्व के जन्मोत्सव तथा जन्माभिषेक के हेमचन्द्र के संक्षिप्त वर्णन २ (१३ पद्य) को पार्श्वनाथचरित में ३१६ पद्यों में प्रस्तुत किया गया है। पार्श्वनाथचरित के कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिनका त्रि० श० पु० चरित में अभाव है अथवा उनका भिन्न प्रकार से निरूपण हुआ है अथवा उनके क्रम में विपर्यास है । वज्रनाभ के मातुल-पुत्र कुबेर का प्रसंग तथा उस द्वारा प्रतिपादित चार्वाक दर्शन और मुनि लोकचन्द्र का उसका प्रतिवाद'' त्रि० श० पु० चरित में उपलब्ध नहीं है । हेमचन्द्र के अनुसार वज्रबाहु की राजधानी पुराणपुर थी। पार्श्वनाथचरित में उसका नाम सुरपुर है। हेमचन्द्र के काव्य में, आश्रमवासिनी विद्याधरकन्या पद्मा गान्धर्वविधि से विवाह करके पति सुवर्णबाहु के साथ अकेली वैताढ्यगिरि को प्रस्थान करती है। पार्श्वनाथचरित में उसकी व्यवहारकुशल सखी नन्दा भी, उसकी परिचारिका के रूप में, साथ जाती है। हेमचन्द्र के विवरण के अनुसार पार्श्व ने ११. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अंग्रेजी अनुवाद), गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज,. संख्या १३०, जिल्द ५, पृ० ३७५ पार्श्वनाथचरित, ३.२७५-५०३ १२. त्रि० श० पु० चरित (पूर्वोक्त), पृ० ३७६-३८०; पार्श्वनाथचरित, ४.१.३१६ १३. पार्श्वनाथचरित, २.१४८-१६३ १४. वही, २.१७२-२२२ १५. त्रि० श० पु० चरित (पूर्वोक्त), पृ० ३६६, पार्श्वनाथचरित ३.१ १६. त्रि० श० पु० चरित (पूर्वोक्त), पृ० ३७५. पार्श्वनाथचरित, ३.२५७-२५८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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