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________________ ४१७ पार्श्वनाथ काव्य : पद्मसुन्दर नीति के प्रतिदपन में भी इसी कोटि की भाषात्मक सरलता दिखाई देती है । कालयवन के अपमानजनक प्रस्ताव का प्रतिवाद करने के लिये अर्ककीत्ति का मन्त्री जिस स्मृतिविहित राजधर्म का निरूपण करता है, उसमें कतिपय नीतिपरक उक्तियाँ सुगमता की कान्ति से शोभित हैं । दुर्मदानां विपक्षाणां वधायोद्योगमाचरेत् । अलसो हि निरुद्योगो नरो बाध्यते शत्रुभिः ॥ ४.१०१ मन्त्रः स्यादषट्कर्णस्तृतीयादेरगोचरः । स च बुद्धिमता कार्यः स्त्रीधूर्तशिशुभिर्न च ॥ ४१०४ पार्श्वनाथकाव्य में समासबहुला भाषा का बहुत कम प्रयोग किया गया है । जहाँ वह प्रयुक्त हुई है, वहाँ भी शरत् की नदी की भाँति वह अपना 'प्रसाद' नहीं, छोड़ती । मंगलाचरण के दीर्घ समास, अनुप्रास तथा प्रांजलता के कारण, अर्थबोध में बाधक नहीं हैं (१.१) । पद्मसुन्दर को शब्दचित्र अंकित करने में अद्भुत कौशल प्राप्त है । शब्दचित्र की सार्थकता इस बात में है कि वर्ण्य विषय अथवा प्रसंग को ऐसी शब्दावली में अंकित किया जाये कि वह पाठक के मानस चक्षुओं को तत्काल प्रत्यक्ष हो जाए । छठे सर्ग में पार्श्व प्रभु के विहार के अन्तर्गत प्रभंजन तथा महावृष्टि के वर्णन की यह विशेषता उल्लेखनीय है । कादम्बिनी तदा श्यामांजनभूधरसन्निभा । व्यानशे विद्युदत्युग्रज्वालाप्रज्वलिताम्बरा ।। ६.४७ गर्जितैः स्फूर्जथुवान ब्रह्माण्डं स्फोटयन्निव । मापस्तडिदुल्लासैर्वर्षति स्म घनाघनः ॥ ६.४६ आसप्तरात्रादासारैझंझामारुतभीषणैः । जलाप्लुता मही कृत्स्ना व्यभादेकार्णवा तदा ॥ ६.५० पार्श्वनाथ काव्य की भाषा में रोचकता की वृद्धि करने के लिये कवि ने कुछ भावपूर्ण सूक्तियों का समावेश किया है। उनमें कुछ सरस सूक्तियाँ यहाँ दी जाती हैं । १. कामरागो हि दुस्त्यजः । १.२१ २. जडानामुच्चसंगोऽपि नीचैः पाताय केवलम् । ३.१४४ ३. किं तत्तपो यदिह भूतकृपाविहीनम् । ५.५३ अलंकारविधान पद्मसुन्दर ने काव्य में अलंकारों की स्थिति तथा उपयोगिता के सम्बन्ध में अपना निश्चित मत प्रकट किया है। पार्श्व के सौन्दर्य वर्णन में प्रयुक्त एक पद्य को
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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