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________________ पार्श्वनाथकाव्य : पद्मसुन्दर तद्गेहेरन्नवृष्टिस्तु पपात गगनांगणात् । महादानफलश्रेणी सद्यः प्रादुरभूदिव ॥ ६.२० आमन्द्रमानका नेदुर्नादापूरितदिग्मुखाः । अबावा (?) पुष्परजसां मन्दं शीतो मरुद् ववो ॥ ६.२२ शान्तरस-प्रधान काव्य में वीररस का चित्रण असंगत प्रतीत हो सकता है, किन्तु पद्मसुन्दर ने पार्श्व तथा कालयवन के युद्ध का जो वर्णन किया है, वह कथानक की कतिपय घटनाओं की स्वाभाविक परिणति है। इसलिये वह काव्य में बलात् लूंसा हुआ प्रतीत नहीं होता। वैसे भी शास्त्र ने महाकाव्य में नायक के शौर्यप्रदर्शन का विधान किया है। पार्श्वनाथ में वणित युद्ध शुद्ध परोपकार की भावना से प्रेरित है। वीर युवा पार्श्व के प्रहार से कालयवन की सेना तितर-बितर हो जाती है, जिससे अर्ककीत्ति के प्रताप को हड़पने वाले काले बादल छंट जाते हैं। युयुधे समुखीभूय सोऽपि तेन रुषारुणः । ततः पार्श्वकुमारस्तु निजसैनिकसंवृतः ॥ ४.१८० यमनस्य भटास्तावत्कांदिशीका हुतौजसः।। बभूवुस्तपनोद्योते खद्योतद्योतनं कुतः ॥ ४.१८२ श्रीमत्पार्श्वप्रतापोग्रतपनोद्योतविद्रुताः। यमनाद्यास्तमांसीव पलयांचक्रिरे द्रुतम् ॥४.१८३ पार्श्वनाथकाव्य में, रसों की यह योजना, इसके पौराणिक इतिवृत्त की नीरसता तथा एकरूपता में रोचकता का संचार करती है। सौन्दर्य-चित्रण संस्कृत-साहित्य में सौन्दर्य-वर्णन की मुख्यतः चार प्रणालियाँ हैं। एक तो वर्ण्य पात्र के सौन्दर्य की समग्रता का सामान्य चित्रण किया जाता है । दूसरे, सुप्रसिद्ध नखशिखविधि से उसके आपादमस्तक सभी अंगों-प्रत्यंगों का सूक्ष्म चित्रण करने का चलन है। इस शैली ने साहित्य में इतनी लोकप्रियता प्राप्त की है कि न केवल संस्कृत-कवि इस ओर तत्परता से प्रवृत्त हुए बल्कि कुछ प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यों में भी इसे रुचिपूर्वक स्वीकार किया गया है। व्यतिरेक तथा अतिशयोक्ति के द्वारा पात्र के अलौकिक सौन्दर्य को अभिव्यक्त करना, तीसरी प्रचलित शैली है । आभूषणों अथवा प्रसाधनों से सौन्दर्य-वृद्धि करने के प्रति भी कवियों की प्रवृत्ति देखी जाती है। ___ पद्मसुन्दर का मानव-सौन्दर्य के प्रति कुछ ऐसा आकर्षण तथा पक्षपात है कि उसने अपने प्रायः सभी पात्रों के रूप का जमकर वर्णन किया है और उसमें अपनी पटुता प्रदर्शित करने तथा वैविध्य लाने के लिये पूर्वोक्त सभी शैलियों का उपयोग किया है । मरुभूति की पत्नी वसुन्धरिका हो अथवा जिन-माता वामा, नायक हो या
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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