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________________ यशोधरचरित्र : पद्मनाभकायस्थ ३९७ वैराग्य में सच्चा सुख खोजने का निश्चय करता है। अभयरुचि का यह निर्वेद काव्य में, शान्तरस में, परिणत हुआ है। मूलं पापस्य भोगोऽयं भोगोऽयं धर्मनाशनः । श्वभ्रस्य कारणं भोगो भोगो मोक्षमहार्गला ॥ ७.१५७ एतादृशममुं जानन्कथं खलमुपाश्रये । एतस्मिन्क: स्पृहां कुर्यात् स्थितिज्ञो मादृशो जनः ॥ ७.१५८ यशोधरचरित्र में शृंगार, करुण, भयानक, बीभत्स आदि का अंगी रस के सहायक रसों के रूप में चित्रण किया गया है । इस पौराणिक काव्य में भी वैराग्यशील साधु ने शृंगार की सरसता का परित्याग नहीं किया, यह उसकी सहृदयता का प्रतीक है । परन्तु इसमें स्न्देह नहीं कि पद्मनाम ने, अन्य अधिकतर जैन कवियों की भाँति, शृगार का चित्रण रूढि का पालन करने के लिए किया है। इसीलिए शृंगार का जम कर चित्रण करने के तुरन्त बाद उसकी निवृत्ति प्रबल हो जाती है और शृंगार की आलम्बनभूत नारी उसे विषवल्लरी, महाभुजंगी तथा व्याघ्री प्रतीत होने लगती है। यशोधरचरित्र में शृंगार के आलम्बनपक्ष के चित्रण के अतिरिक्त यशोधर तथा उसकी रानी अमृतमती के सुरत-वर्णन में सम्भोग-शृंगार का भव्य परिपाक हुआ है । पद्मनाम ने शृंगार के कला-पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है। चुम्बन, आलिंगन तथा विपरीत-रति आदि चेष्टाएँ इसी प्रवृत्ति की द्योतक हैं। तस्माद् विनिर्गत्य नृपात्मजा मे जयस्वनीकृत्य ननाम पश्चात् । आलिंग्य कण्ठे सुमुखीं गृहीत्वा हस्ते च शय्यातलमाजगाम ॥ ३.८५ वस्त्रे निरस्ते मुखफूत्कृतेन निर्वातुकामा सुदती प्रदीपम् । मणिप्रदीपं प्रति तन्मुखाब्जफूत्कारवातो विफलीबभूव ॥ ३.८६ क्षणं प्रिया तन्मुखमुन्नमय्य चुचुंब मीनध्वजबाणखिन्नः । स्थित्वोपरि प्रेमभरात्प्रियस्य क्षणं तु पुंश्चेष्टितमाततान ॥ ३.८७ देवी चण्डमारी के चित्रण में भयानकरस का आलम्बन पक्ष प्रस्फुटित है । अपने कराल मुख, लपलपाती जीभ तथा अंगारतुल्य आंखों के कारण वह यम की दाढ प्रतीत होती है (१.८०-८१)। इसी चण्डमारी के मन्दिर का वर्णन बीभत्सरस को जन्म देता है । यहाँ मन्दिर के प्रांगण में बहती रक्त-धारा, मांस, मज्जा आदि आलम्बन विभाव हैं । गीधों का पंख फड़फड़ा कर मांस राशि की ओर दौड़ना, कुत्तों का हड्डियाँ चबाना तथा चर्बी पर मक्खियों का भिनभिनाना उद्दीपन-विभाव हैं। मोह, आवेग, व्याधि आदि व्यभिचारी भाव हैं । इनसे परिपुष्ट होकर अभयरुचि का मनोगत स्थायी भाव, जुगुप्सा, बीभत्स के रूप में परिणत हुआ है। मांसस्वेदगतानेकगृध्रपक्ष तिलक्षितं । रक्ताम्बुवाहिनीमध्यमज्जत्करटकव्रजम् ॥ १.११६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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