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________________ यशोधरचरित्र : पद्मनाभकायस्थ ३६५ शासक सन् १४२२ तक वर्तमान था। अमरकीत्ति के षट्कर्मोपदेश की आमेर प्रति में, जो सं० १४७ (सन् १४२२) में लिखी गयी थी, ग्वालियर में वीरमदेव के राज्य का उल्लेख है। आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वदीपिका (प्रवचनसार की टीका) भी वीरम के शासनकाल में (सन् १४१२ में) लिखी गयी थी। पूर्वनिर्दिष्ट युक्ति के अनुसार वीरम का राज्यकाल १३८२ से १४२२ ई० तक माना जा सकता है। प्रतीत होता है, पद्मनाभ कायस्थ तथा आचार्य अमृतचन्द्र, नयचन्द्रसूरि के अवरज समवर्ती विद्वान थे । इससे यह मानना तर्कसंगत होगा कि यशोधरचरित्र पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में, सन् १४०० से १४२२ ई० तक, किसी समय लिखा गया होगा। इस प्रकार वीरम के राज्यकाल को, साहित्य को दो महत्त्वपूर्ण काव्य प्रदान करने का गौरव प्राप्त है। कथानक यशोधरचरित्र नौ सर्गों का महाकाव्य है, जिसमें पूर्वजन्म के यशोधर की कथा वणित है। प्रथम सर्ग में यौधेयदेश के अन्तर्वर्ती राजपुर का शासक मारिदत्त, खेचरी विद्या प्राप्त करने के लिये, योगी भैरवानन्द की दुष्प्रेरणा से, काली को नरबलि से प्रसन्न क ने की योजना बनाता है। उसके अनुचर एक मुनिकुमार तथा मुनिकन्या को पकड़कर लाते हैं। उनकी सौम्य आकृति तथा वाक्कौशल से प्रभावित होकर मारिदत्त उन्हें छोड़ देता है तथा उनका परिचय प्राप्त करने का आग्रह करता है। द्वितीय सर्ग से मुनिकुमार का आत्मपरिचय प्रारम्भ होता है, जो काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य है। मुनिकुमार पूर्वजन्म का उज्जयिनी-नरेश यशोध का पुत्र यशोधर है । उसका विवाह विराटनगरी के शासक विमलवाहन की रूपवती कन्या अमृतमती से हुआ था । तृतीय सर्ग में महाराज यशोध पलित केश को वार्धक्य का अग्रदूत मानकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं तथा राज्य का शासनसूत्र यशोधर को सौंप देते हैं। अमृतमती से यशोधर को एक पुत्र, यशोमति, की प्राप्ति होती है। अमृतमती कुबड़े हाथीवान की गायन-कला पर मुग्ध होकर उसे आत्मसमर्पण कर देती है । एक दिन स्वयं यशोधर उसे कुबड़े के साथ रमण करती देखता है। चतुर्थ सर्ग में वह इस अपमान से आहत हो जाता है किन्तु अपनी व्याकुलता को दुःस्वप्न का परिणाम बताकर उसके शमन के लिये, हिंसा को घोर पाप मानता हुआ भी, माता के आग्रह से, कुलदेवता को पिष्टि का एक मुर्गा भेंट करता है और उसे देवता का प्रसाद समझ कर खा जाता है कुलटा अमृतमती अपने पति यशोधर और उसकी माता चंद्रमती को विष देकर मार देती है। पांचवें सर्ग में यशोधर तथा चन्द्रमती के भवान्तरों का वर्णन है । जीवहत्या के फलस्वरूप वे श्वान, मत्स्य, अज आदि निकृष्ट योनियों में भटकते हैं । छठे सर्ग में उनका जीव कुक्कुटों के रूप में जन्म लेता है, जिनका पालन५. जैनग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह, भाग १, प्रस्तावना, पृ० ७
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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