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________________ २०. यशोधरचरित्र : पद्मनाभकायस्थ यशोधर की सुप्रसिद्ध कथा पर आधारित पद्मनाभकायस्थ का यशोधरचरित आलोच्य युग का रोचक पौराणिक महाकाव्य है। यशोधर, जीवहत्या के जघन्य पाप के कारण नाना अधम योनियों में भटक कर, अपनी पुत्रवधू के गर्भ से अभयरुचि के रूप में जन्म लेता है । अभयरुचि का वक्तव्य ही यशोधरचरित्र है। काव्य में अधिकतर अभयरुचि के भवान्तरों की कथा वणित होने से वर्तमान शीर्षक इसकी कथावस्तु पर पूर्णतया लागू नहीं होता। पद्मनाभ का लक्ष्य काव्य के व्याज से जैनधर्म के सिद्धान्तों का विश्लेषण करके जनता को आहत धर्म की ओर प्रवृत्त करना है । इसीलिए काव्य में कवि का प्रचारवादी स्वर अधिक मुखर है । यशोधर चरित्र की कुछ हस्तप्रतियाँ आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध हैं। उनमें से एक प्रति (संख्या ६११) हमें अध्ययनार्थ डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल के सौजन्य से प्राप्त हुई थी। १२ x ५३ इंच आकार के चालीस पत्रों की यह प्रति शुद्ध तथा स्पष्ट है । उसी के आधार पर यह विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। यशोधरचरित्र का महाकाव्यत्व यशोधरचरित्र के प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में इसे आग्रहपूर्वक महाकाव्य कहा गया है । इसके रचयिता ने महाकाव्य के बाह्याबाह्य लक्षणों का पालन भी किया है । यशोधरचरित्र के मंगलाचरण के तीन पद्यों में चंद्रप्रभ तथा रत्नत्रय की वन्दना की गयी है। पूर्ववर्ती तथा परवर्ती अनेक कवियों की रचनाओं का विषय होने के कारण इसके कथानक को 'प्रख्यात' मानना उचित है । नायक यशोधर राजवंश में उत्पन्न अवश्य हुआ है, किन्तु काव्य में उसका व्यक्तित्व उसके पूर्वभवों के वर्णनों से इस तरह परिवेष्टित है कि उसमें उन गुणों का विकास नहीं हुआ, जिनके आधार पर उसे परम्परागत नायकों की श्रेणी में रखा जा सके । सामान्यतः उसे धीरप्रशान्त कहा जा सकता है । पौराणिक काव्य होने के नाते इसमें शान्तरस की प्रधानता है । शृंगार, भयानक, बीभत्स तथा अद्भुत रस, अंगी रस से मिलकर, काव्य की रसवत्ता को तीव्र बनाते हैं। यशोधरचरित्र जैनदर्शन की गरिमा के प्रतिपादन तथा जिनधर्म के प्रचार की अदम्य भावना से अनुप्राणित है । काव्य का शीर्षक अभयरुचि के पूर्वजन्म के नाम (यशोधर) पर आश्रित है । यह पूर्णतया शास्त्रसम्मत तो नहीं है किन्तु इससे महाकाव्य के स्वरूप पर आंच नहीं आती। इसके प्रायः सभी सर्ग मुख्यतः अनुष्टुप् में निबद्ध है । यह अरस्तू के छन्द-सम्बन्धी आदर्श के अधिक अनुकूल है। इसकी सहज
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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