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________________ श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि ३८७ साभून्ननु मा रजनी मारजनी साप्युदेति मारजनी । रुचिनिजितमारजनी न तत्र तल्पं ममार जनी ॥ ८.१८८ श्लेष से काव्य में क्लिष्टता का भय रहता है, अतः माणिक्यसुन्दर ने श्लेष का बहुत कम प्रयोग किया है। काव्य में यद्यपि अभंग तथा समंग दोनों प्रकार का श्लेष दृष्टिगत होता है किन्तु वह दुरूहता से मुक्त है। अभंग श्लेष का एक रोचक उदाहरण देखिए निशि ध्वान्ते भुजंगेन गृहीता करपल्लवे । जीवितेनोज्झिता युक्तं सा याति पितृमन्दिरम् ॥ ४-६७ श्रीधरचरित में अर्थालंकार भी भावाभिव्यक्ति के साधन हैं। उन्हें बलपूर्वक काव्य में ठूसने का दुष्प्रयास नहीं किया गया है। उपमा यद्यपि कवि का प्रिय अलंकार नहीं है फिर भी श्रीधरचरित में कुछ मनोरम उपमाएँ प्रयुक्त हुई हैं। कहींकहीं अन्य अलंकारों के साथ उसका संकर है (६.४४) । सद्यःस्नाता सुलोचना के वर्णन में उपमा से प्रेषणीयता आई है। स्नान के पश्चात् शरीर से जलकण पौंछने पर कंचनवर्णी गलोचना प्रभातवेला के समान प्रतीत होने लगी जिसमें तारागण अस्त हो गये हैं (७.३) । निम्नोक्त उपमा साहित्यशास्त्र तथा व्याकरण पर आधारित है । इसमें विजयचन्द्र तथा उसके साथ वैराग्य ग्रहण करने वाले मन्त्रियों की तुलना क्रमशः औचित्य एवं गुण तथा सूत्र एवं वात्तिकों से की गई है। राजर्षि मुख्यास्तद्भक्तिदक्षास्तेऽपि तमन्वगुः । सर्वे गुणा इवौचित्यं सूत्रं वा वात्तिकादयः ॥ ६.२२६ माणिक्यसुन्दर ने वर्ण्य भावों को स्पष्ट बनाने के लिये काव्य में उल्लेख; असंगति, व्याजोक्ति; विशेषोक्ति, सहोक्ति, स्वभावोक्ति, सार, कारकदीपक, परिसंख्या; विरोधाभास, प्रतिवस्तूपमा, यथासंख्य तथा रूपक आदि का सटीक प्रयोग किया है। प्रस्तुत श्लोक में स्वेद आदि सात्त्विक भावों के गोपन के लिये स्वयम्वर में आया एक राजा, गर्मी के व्याज से पंखा करने लगता है। यह व्याजोक्ति है। धरापतिः कोऽपि स्मरातुरः स्मरन्निमां सात्त्विकधर्मसंकुलः । अहो महोष्मेति वदन्नचीचलत् करेण केलिव्यजनं मुहुर्मुहुः ॥७.१७ विरोधाभास से मंगलपुरवासियों का स्वरूप साकार हो गया है । वे शिव होते हुए भी रुद्र नहीं, कात्तिकेय होते हुए भी स्वामी नहीं और लक्ष्मीपति होते हुए भी वैकुण्ठवासी नहीं हैं। शिवरूपोऽपि न रुद्रो न घनसुहृद्वाहनोऽपि स्वामी । यत्र न्यविशत लोको लक्ष्मीकान्तो न वैकुण्ठः ॥२.७ निम्नोक्त पद्य में वर्णित वस्तुओं का उत्तरोत्तर उत्कर्ष बतलाने के कारण सार' अलंकार है।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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