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________________ ३८४ जैन संस्कृत महाकाव्य महाकाव्य की गरिमा की रक्षा करते हुए जिस प्रांजल भाषा का प्रयोग किया है वह अरस्तू के भाषा-सम्बन्धी आदर्श की पूर्ति करती है। मध्यकालीन संस्कृत-काव्य में भाषा की यह प्रांजलता कम देखने को मिलती है । श्रीधरचरित की भाषा आद्यन्त सौष्ठव तथा माधुर्य से ओत-प्रोत है। इसका आधार अनुप्रास तथा अक्लिष्ट यमक का सविवेक प्रयोग है । काव्य में प्रायः सर्वत्र अनुप्रास की अन्तर्धारा प्रवाहित है। श्रीधरचरित में, विशेषकर अन्तिम दो सर्गों में, कवि का आधारफलक इतना विस्तृत है कि उस पर आकाश-पाताल, नागों, विद्याधरों, भूतों आदि का एकसाथ चित्रण किया गया है । श्रीधरचरित में, इन विविध स्थितियों के अनुपात में, भाषा का वैविध्य नहीं है किन्तु माणिक्यसून्दर प्रसंग को तदनुकूल भाषा में व्यक्त करने में समर्थ है। कुशल जड़िया की भाँति वह प्रसंग-विशेष में जिस भाषा को टांक देता है, उसे, प्रसंग का सौन्दर्य नष्ट किये बिना, परिवर्तित करना प्राय: असम्भव है। अपने शब्दचयन के कौशल के कारण सिद्धहस्त बुनकर की तरह जब वह प्रसंगानुकूल शब्दावली का गुम्फन करता है. तो स्वतः कान्त पदावली की सृष्टि होती चली जाती है । श्रीधरचरित में अधिकतर जो भाषा प्रयुक्त हुई है, उसमें वह गुण वर्तमान है जिससे चित्त में द्रवीभाव का उद्रेक होता है । इस प्रांजलता के कारण माणिक्यसुन्दर की भाषा को पढ़ते ही भावावबोध हो जाता है । स्वयम्वर में उपस्थित राजाओं के परिचयात्मक वर्णन की भाषा में कहीं-कहीं तो असीम कोमलता तथा मधुरता है । एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे। अमलकमलकोमलवरवदनं स्फुरदुरुरुचिनिजिततरमदनम्। गजपुरपतिमुन्नतगुणसदनं भज भज गजगामिनि ! नृपमदनम् ।।७.४६ नवयौवनकाननकेलिकरं करपल्लवनिजितपद्मवरम् । वररत्नममुं वृणु सर्वकलं कलय त्वमतस्तरुणत्वफलम् ॥७.४० वैराग्यजनक पश्चात्ताप के चित्रण की भाषा भी इसी सरलता तथा सुबोधता से परिपूर्ण है किन्तु उसमें आत्मग्लानि का मिश्रण है, जो पात्र की विशिष्ट मनोदशा के अनुरूप है । प्रबोधप्राप्ति के पश्चात् विजयचन्द्र के ये उद्गार इसका अनूठा उदा. हरण प्रस्तुत करते हैं। कान्तांगदेशं रोमालिकाननं नाभिकन्दरम् । वजता विषयस्तेनैः हा मया जन्म हारितम् ॥६.१७१ सिद्धपुरुष के अवतरण-वर्णन की भाषा सभासदों के कुतूहल को मूर्त करने में समर्थ है। पार्षदों की विकल्पात्मक मनःस्थिति के अनुरूप उक्त प्रकरण की पदावली ऊहा को व्यक्त करती है। अयि ! कोऽयमनुत्तरच्छविः किं रविरेति भुवं विहायसः ? अथ पुस्तकहस्ता तां दधत् पुंरूपैव सरस्वती न किम् ? ॥२.२३ भाषा-प्रयोग के कौशल ने माणिक्यसुन्दर की वर्णनशक्ति को सामर्थ्य प्रदान किया है। वह प्रत्येक वर्ण्य विषय का रोचक तथा प्रभावी चित्रण कर सकता है ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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