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________________ ३७८ जैन संस्कृत महाकाव्य चित्र अत्यन्त दुर्लभ हैं। सूर्योदय का प्रस्तुत वर्णन काव्य में शायद एकमात्र ऐसा चित्र है जिसे स्वाभाविक कहा जा सकता है। सूर्य के उदय से कुमुद बन्द हो जाते हैं, कमल खिल उठते हैं और उदयाचल का शिखर सूर्य की नव किरणों से लाल हो जाता है । इस पद्य में प्रातःकालीन प्रकृति का यह सहज रूप अंकित है। निमीलकः कैरविणीवनानामुन्मीलकः पद्मवनालीषु । बालांशुकिर्मीरितशैलसानुरुदेति राजेन्द्रसहस्रभानुः ॥ ६.६५ प्रकृति के सहज-संश्लिष्ट चित्र श्रीधरचरित में इतने दुर्लभ नहीं हैं। इस श्रेणी के चित्रों में विविध अलंकारों की भित्ति पर प्रकृति के आलम्बन पक्ष का चित्रण किया जाता है । अलंकार प्रकृति को आक्रान्त करने का प्रयत्न करते हैं किंतु कुशल कवि उनमें सन्तुलन बैठाकर प्रकृति-चित्रण की प्रभविष्णुता में वृद्धि करता है। श्रीधरचरित में प्रकृति के कुछ ऐसे चित्र अंकित हुए हैं। सूर्य के गगनांगन में प्रवेश करते ही अन्धकार छिन्न-भिन्न हो जाता है। यह अति सामान्य दृश्य है जिसे कवि ने रूपक, अनुप्रास तथा उपमा की सुरुचिपूर्ण योजना से ऐसे अंकित किया है कि इसका सौन्दर्य अनायास प्रस्फुटित हो गया है । उच्चः करं प्राच्यगिरेविहारी चिकेलिषुयोममहातडागे। उन्मूलयन्नेष तमस्तमालीविभाति हस्तीव गभस्तिमाली ॥ ६.६३ माणिक्यसुन्दर ने प्रकृति को अधिकतर मानवी रूप दिया है। समासोक्ति अलंकार इस दृष्टि से अतीव उपयोगी है। मानव-प्रकृति की गहन परिचिति तथा प्रकृति के सूक्ष्म अध्ययन के कारण कवि मानव-जगत् तथा प्रकृति की भावनाओं एवं चेष्टाओं में आश्चर्यजनक तादात्म्य स्थापित करने में सफल हुआ है। सूर्योदय के प्रस्तुत चित्रण में चन्द्रमा, सूर्य तथा आकाश (द्यौः) पर क्रमशः जार, पति तथा नायिका का आरोप किया गया है। पति के सहसा आगमन से जैसे जार जान बचा कर भाग जाता है, उसी प्रकार रात भर आकाश-नायिका को भोगने वाला चन्द्रमा, उसके स्वामी (पति) सूर्य को देखकर सम्भ्रमवश भाग गया है और आकाश-नायिका रति के कारण अस्तव्स्त अपने अन्धकार-रूपी केशों को समेट रही है। मानवीकरण से, चन्द्रमा के अस्त होने तथा सूर्योदय से अन्धकार के मिटने की साधारण घटना में अद्भुत सजीवता का समावेश हो गया है । दिवं शशांकः परिभज्य मित्रागमात् पलायिष्ट रयात् त्रपालुः । धम्मिलतां सापि तमःशिरोजभारं नयत्याशु रतिप्रकीर्णम् ॥ ६.८८ प्रकृति को मानवी रूप देने में कवि ने इतनी तत्परता दिखाई है कि उसके अधिकांश चित्रों में मानवहृदय की थिरकन सुनाई पड़ती है। निम्नोक्त पद्य में कमलिनियाँ रागवती नायिकाओं की भाँति भ्रमरांजन आंज कर प्रवास से लौटे अपने
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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