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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य के नेतृत्व में निराकृत राजाओं और विजयचन्द्र के युद्ध में वीररसात्मक रूढ़ियों को अधिक महत्त्व दिया गया है। कवि ने घोड़ों की हिनहिनाहट, हाथियों की चिंघाड़, योद्धाओं के भुजास्फोट तथा द्वन्द्व-युद्ध के वर्णन में ही वीररस की चरितार्थता मानी है। दैवी शक्तियों के हस्तक्षेप तथा अतिप्राकृतिक तत्त्वों ने युद्ध को यथार्थ की अपेक्षा काल्पनिक बना दिया है (८.१७,१६)! और विजय की दयालुता तथा शत्रु को पराजित करने की लालसा के अन्तर्द्वन्द्व ने युद्ध को हास्यास्पदता की सीमा तक पहुंचा दिया है (८.२४) । विजय द्वारा प्रयुक्त अवस्वापिनी विद्या से जन्य प्रमीला से अभिभूत होकर विपक्षी सेना उसका प्रभुत्व स्वीकार करती है। यह अविश्वसनीय स्थिति है, जिसे पाठक से स्वीकार करने की अपेक्षा की गयी है। अलौकिक शक्तियों के हस्तक्षेप ने विजय तथा वज्रदाढ के युद्ध को भी कल्पनालोक की वस्तु बना दिया है। उधर विजय की 'कृपा' युद्ध के उद्देश्य पर पानी फेर देती है। वह मृतजीवनी-विद्या से स्वपर दोनों पक्षों के मृत सैनिकों को पुनर्जीवित कर देता है और पुन: नरसंहार के पाप से बचने के लिये सैन्ययुद्ध का परित्याग करता है किन्तु द्वन्द्वयुद्ध में दोनों ओर से आग्नेय, वायव्य आदि संहारक अस्त्रों का खुलकर प्रयोग किया जाता है। यह चलायमान आचरण उसकी हिंसा के प्रति जन्मजात घृणा तथा काव्य नायक के वीरोचित दर्प का समन्वय करने की चेष्टा के द्वन्द्व को प्रतिबिम्बित करता है। श्रीधरचरित के कथानक का पर्यवसान शान्तरस में हुआ है। काव्य के प्राय: सभी पात्र राज्य-वैभव, विषयभोग आदि सांसारिक बन्धनों को छोड़कर संयम का मार्ग ग्रहण करते हैं। इसके लिये मुनि के धर्मोपदेश अथवा अन्य किसी वैराग्यजनक घटना की प्रेरणा पर्याप्त है । भोगविलास में पूर्णतया लिप्त व्यक्ति के हृदय में विरक्ति के उदय के लिये इस प्रकार की घटना अपर्याप्त अथवा असमर्थ प्रतीत हो सकती है किन्तु यह मानव-मनोविज्ञान के प्रतिकूल नहीं है। अतिशय भोग की परिणति योग में होती है। जैन काव्यों का उद्देश्य पाठक को कविता के सरस माध्यम से वैराग्य की ओर उन्मुख करना है। शृंगार का पर्याप्त चित्रण होने पर भी श्रीधरचरित का मूल स्वर निर्वेद का स्वर है। सांसारिक वैभव तथा भोग तात्कालिक सुख दे सकते हैं किन्तु शाश्वत आनन्द संयम एवं त्याग में निहित है, यह प्रस्तुत काव्य का संचित सार है। काव्य के इस उद्देश्य के अनुरूप जयन्त मुनि की निवृत्तिप्रधान धर्मदेशना सुन कर तथा उनसे संयमश्री के स्वरूप की यथार्थता जानकर, दैहिक भोग में लीन विजयचन्द्र सर्वस्व त्याग कर मोक्ष के द्वार, प्रव्रज्या में प्रवेश करता है। उसकी यह मनःस्थिति निर्बाध भोग से उद्विग्न व्यक्ति के गानस की द्योतक है। उसकी इस मानसिक स्थिति की भूमि में शान्तरस की उद्दाम धारा प्रवाहित २४. वही, ८.४३२-४३६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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