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________________ २४ जैन संस्कृत महाकाव्य - स्नान-सज्जा के उपरान्त ऋषभ जंगम प्रासादतुल्य ऐरावत पर आरूढ होकर वधूगृह को प्रस्थान करते हैं । पाणिग्रहणोत्सव में भाग लेने के लिये समूचा देवमण्डल धरा "पर उतर आया, मानो स्वर्ग भूमि का अतिथि बन गया हो । चतुर्थ सर्ग के उत्तरार्द्ध तथा पंचम सर्ग के अधिकांश में तत्कालीन विवाह - परम्पराओं का सजीव चित्रण है । पाणिग्रहण सम्पन्न होने पर ऋषभदेव विजयी सम्राट् की भांति घर लौट आते हैं । यहीं, दस पद्यों में, उन्हें देखने को लालायित पुरसुन्दरियों के सम्भ्रम का रोचक चित्रण है। छठा सर्ग रात्रि, चन्द्रोदय, षड्ऋतु आदि वस्तुव्यापार के वर्णनों से परिपूर्ण है । ऋषभदेव नवोढा वधुओं के साथ शयनगृह में प्रविष्ट हुए जैसे तत्त्वान्वेषी मति तथा स्मृति के साथ शास्त्र में प्रवेश करता है । सर्ग के अन्त में सुमंगला के गर्भाधान का संकेत मिलता है। सातवें सर्ग में सुमंगला को चौदह स्वप्न दिखाई देते हैं । वह उनका फल जानने के लिए पति के वासगृह में जाती है । अष्टम सर्ग में ऋषभदेव सुमंगला के असामयिक आगमन के विषय में नाना वितर्क करतें हैं । उनका मनरूपी द्वारपाल उन स्वप्नों को बुद्धिबाहु से पकड़ कर विचारसभा में ले गया और उनके हृदय के धीवर ने विचार- पयोधि का अवगाहन कर उन्हें फलरूपी मोती भेंट किये । नवें सर्ग में ऋषभ सुमंगला के गौरव का बखान तथा स्वप्नफल का विस्तारपूर्वक निरूपण करते हैं । यह जानकर कि इन स्वप्नों के दर्शन से मुझे चौदह विद्याओं से सम्पन्न चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति होगी, सुमंगला आनन्द-विभोर हो जाती है । दसवें सर्ग में सुमंगला अपने वासगृह में आती है और सखियों को समूचे वृत्तान्त से अवगत कराती है। ग्यारहवें सर्ग में इन्द्र सुमंगला के सौभाग्य की सराहना करता है तथा उसे विश्वास दिलाता है कि "तुम्हारे पति का वचन कदापि मिथ्या नहीं हो सकता । अवधि पूर्ण होने पर तुम्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। उसके नाम (भरत) से यह देश 'भारत' तथा वाणी 'भारती' कहलाएगी । मध्याह्न वर्णन के साथ काव्य सहसा समाप्त हो जाता है । अधिकांश कालिदासोत्तर महाकाव्यों की भाँति जैनकुमारसम्भव को कथावस्तु के निर्वाह की दृष्टि से सफल नहीं कहा जा सकता । जैनकुमारसम्भव का कथानक, उसके कलेवर के अनुरूप विस्तृत अथवा पुष्ट नहीं है । मूल कथा तथा वर्ण्य विषयों .. के बीच जो खाई सर्वप्रथम भारवि के काव्य में दिखाई देती है, वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी । यदि जैनकुमारसम्भव की निरी कथात्मकता को लेकर काव्यरचना की जाये तो वह तीन-चार सर्गों से अधिक की सामग्री सिद्ध नहीं होगी, किन्तु जयशेखर ने उसे विविध वर्णनों, सम्वादों तथा अन्य तत्त्वों से पुष्ट कर ग्यारह सर्गों का वितान खड़ा कर दिया है । यह वर्णन - प्रियता की प्रवृत्ति काव्य में अविच्छिन्न विद्यमान है । प्रथम छह सर्ग अयोध्या, ऋषभ के शैशव तथा यौवन, वर-वधू के अलंकरण तथा
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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