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________________ श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि श्रीधरचरित का स्वरूप श्रीधरचरित में महाकाव्य की पौराणिक, शास्त्र तथा शास्त्रीय शैलियों का अविच्छेद्य गठबन्धन है। भवान्तर-वर्णन तथा व्यक्ति के वर्तमान आचरण तथा परिस्थितियों को पूर्वजन्मों के कर्मों एवं संस्कारों से परिचालित मानने की पौराणिक प्रवृत्ति श्रीधरचरित की मुख्य विशेषता है । काव्य में प्रायः सभी पात्रों के पूर्व अथवा भावी भवों का वर्णन किया गया है। जयचन्द्र के राजमहल में अवतरित सिद्धपुरुष पूर्व-जन्म में वेदज्ञ ब्राह्मण अग्निमित्र का पुत्र था। राजा दुर्ललित के पुत्र तथा पुत्री का युगल छह भवों में घूम कर रत्नपुर के शासक रत्नांगद के पुत्र-पुत्री के रूप में जन्म लेता है । अष्टम सर्ग में ही विजयचन्द्र तथा सुलोचना के पूर्ववर्ती सात जन्मों का विस्तृत वर्णन है। विजय तथा वज्रदाढ पूर्वजन्म के सहोदर श्रीधर तथा चन्द्र हैं। श्रीधर की पत्नी गौरी सात भवों के उपरान्त सुलोचना के रूप में उत्पन्न होती है। पूर्वजन्म के अनुराग के कारण श्रीधर का अग्रज चन्द्र मेरुपर्वत पर गौरी से रति की याचना करता है तथा विद्याधर वज्रदाढ के रूप में विजयचन्द्र की नवोढा प्रिया सुलोचना को हर ले जाता है । श्रीधरचरित में मुख्य कथा के भीतर अवान्तर प्रसंग गुम्फित करने की पुराणसम्मत रीति का विद्रूप दिखाई देता है । चतुर्थ सर्ग में विजयचन्द्र के वनगमन की कथा में हस्तिनापुर-नरेश गजभद्र, नरमेधी योगी तथा रत्नावली की कथाएँ अन्तनिहित हैं । अष्टम सर्ग में, यह प्रवृत्ति चरम सीमा को पहुँच जाती है, जहाँ, सुलोचना-हरण के प्रसंग में, कवि ने अगणित कथासूत्रों को लेकर आख्यानों का विचित्र तानाबाना बुन दिया है। पौराणिक महाकाव्यों की प्रकृति के अनुरूप प्रस्तुत काव्य में अलौकिक तथा अतिप्राकृतिक घटनाओं की भरमार है। सिद्धपुरुष आकाश से उतर कर जयचन्द्र को एक गुटिका प्रदान करता है जिसके फलस्वरूप उसे पुत्र की प्राप्ति होती है । चेटक तो विजयचन्द्र के लिये रामबाण है जो गाढे समय में, स्मरण मात्र से, तत्काल उपस्थित होकर उसके सम्भव-असम्भव सब काम सिद्ध कर देता है । विजयचन्द्र गारुड़ मन्त्र से, मृत कनकमाला को पुनर्जीवित करता है, अवस्वापिनी विद्या से शत्रु-सेना को सुला कर निश्चेष्ट बना देता है पर करुणा से द्रवित हो कर स्वपर-पक्ष के मृत सैनिकों को मृतजीवनी-विद्या से प्राणदान देता है । विजया (पहले जन्म की विजयचन्द्र की माता) कुमार (विजयचन्द्र) को अपने पति के पास नागलोक में ले जाती है तथा उसे यथासमय रूप परिवर्तित करने के लिये एक गुटिका देती है । काव्य के अन्तिम दो सर्ग इन्हीं अतिमानवीय घटनाओं से आच्छन्न हैं । श्रीधरचरित में कतिपय लोककथा की रूढियों का भी प्रयोग हुआ है, जो इसकी पौराणिकता को रोमांचकता की सीमा तक पहुंचा देती हैं। विजयचन्द्र के शुक का रूप तथा श्रीधर की पत्नी गौरी के हंसी का रूप धारण करने और मानववत् वार्ता
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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