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________________ ३६४ जैन संस्कृत महाकाव्य चन्द्रकान्तमणि द्रवित होकर शान्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत शासक तथा अप्रस्तुत चन्द्रमा के आचरण में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है । स क्रूरोऽपि गुरोर्भाग्याद् भूकान्तः शान्ततामगात् । चन्द्रसम्पर्कतश्चन्द्रोपलः किं नाम्बु मुञ्चति ॥ २०.५८ अकबर की सभा में स्त्रीत्व को प्राप्त विजयसेन की स्थिति को प्रतिद्वन्द्वियों की कामशक्ति को समाप्त करते हुए चित्रित किया गया है, अतः यहाँ विरोध है । महेलाभावमापन्ना स्थितिस्तत्र व्रतीशितुः । हन्ति स्म कामशक्ति यद् वादिनामेष विस्मयः ।। १२.२२२ उपर्युक्त अलंकारों के अतिरिक्त विजयप्रशस्ति में जिन अलंकारों को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया है, उनमें श्लेष, अनुप्रास, यमक, तद्गुण, यथासंख्य, अद्भुत, विभावना, विशेषोक्ति, पर्यायोक्त, सन्देह प्रमुख हैं । इनमें से कुछ के उदाहरण यहाँ दिए जाते हैं। यथासंख्य–तदा प्ररोहावसतां सतां च चेतस्यभूताममुदां मुदां च ॥ ८-२२ अद्भुत-सिंहकटिगतिहस्ती मुखं चन्द्रो दगम्बुजम् । नामूनि कलाहयन्ते मिथो वैरेऽपि यत्तनौ ॥ ४.३७ सन्देह-गंगाप्रवाहः किमुतापहारी, कल्पद्रुमः किं सकलोपकारी। श्री सूरिसिंहः समुपागतोऽसावज्ञायि देशेऽत्र समस्तलोकः ॥ ११.२ छन्दयोजना विजयप्रशस्ति में शास्त्रीय नियम के अनुसार छन्दों का प्रयोग किया गया है । अठारहवें सर्ग में छन्दों की बहुलता है। विजयप्रशस्ति में १६ छन्दों को काव्यरचना का आधार बनाया गया है । अठारहवें सर्ग में प्रयुक्त छन्दों के काम इस प्रकार हैंद्रुतविलम्बित, शालिनी, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, वसन्ततिलका, भुजंगप्रयात, स्रग्विणी, स्वागता, मालिनी, मोटनक, शार्दूलविक्रीडित । इनके अतिरिक्त काव्य में अनुष्टुप्, हरिणी, शिखरिणी, इन्द्रवज्रा, मन्दाक्रान्ता, इन्द्रवंशा, स्रग्धरा तथा वंशस्थ, इन आठ छन्दों को अपनाया गया है । काव्य में अनुष्टुप् की प्रधानता है । इसके बाद उपजाति का स्थान है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हेमविजय में कवि-प्रतिभा है; पर सीमित प्रचारवादी उद्देश्य ने उसकी प्रतिभा को पनपने नहीं दिया है। फलतः, वह एक तंग घेरे में छटपटा कर रह गयी है । कतिपय कवित्वपूर्ण उद्यानों को छोड़कर समूचा काव्य इतिवृत्तात्मक मरुथल है। अपनी दुर्दमनीय धार्मिक वृत्ति की वेदी पर काव्यप्रतिभा की बलि देने वाले जैन कवियों में हेमविजय भी एक हैं।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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