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________________ ३४२ जैन संस्कृत महाकाव्य पूरा करने का प्रयास किया हैं । विविध अलंकारों तथा कल्पनाओं के द्वारा प्रकृति का संश्लिष्ट चित्र अंकित करने में वह सिद्धहस्त है। प्रकृति का अलंकृत चित्रण उस युग की बद्धमूल प्रवृत्ति थी जिसकी उपेक्षा करना प्रतिभाशा ती कवियों के लिये भी सम्भव नहीं था। सर्वविजय के प्रकृति-चित्रण की विशेषता यह है कि वह प्रौढोक्तिमय होता हुआ भी उसकी कल्पनाशीलता के कारण बराबर रोचकता से परिपूर्ण मेवाड़ की पर्वतमाला, चन्द्रोदय आदि के चित्रण में प्रौढाक्ति की ओर कवि का आग्रह रहा है । पर्वत की गुफाओं में स्थित किन्नरियों के गान की मधुर तान पर मुग्ध होकर चन्द्रमा का मृग आत्मविभोर हो जाता है जिससे चन्द्रमा को चलने में विलम्ब हो जाता है । मेवाड़ की पर्वत-शृंखला पर रात भर च दली छाई रहने का कारण सर्वविजय ने ढूंढ लिया है। पर्वतों के स्फटिक-पाषाणों की किरणों से चन्द्रमण्डल के आच्छादित हो जाने के कारण राहु उसे नहीं पहचान सकता। उसके भय से मुक्त होकर चन्द्रमा वहाँ आनन्द मनाता रहता है, यद्यपि पर्वत-वासिनी विद्याधरियों के मुख के सौन्दर्य से पराजित होकर उसे लज्जित होना पड़ता है। सूर्य की किरणें प्रात:काल पर्वतों के अधोभाग पर क्यों पड़ती हैं? कवि की कल्पना है कि उनकी गगनचुम्बी चोटियों में अपने घोड़ों के अटकने की आशंका से सूर्य अपने करों (किरणोंहाथों) से उनका चरणस्पर्श करके उन्हें विघ्नमुक्त करने के लिये मनाता है ! गुफाओं में स्थित सो, तलहटियों में ध्यानमग्न योगियों तथा अधित्यका पर वर्तमान देवताओं के कारण वह पर्वतमाला तीनों लोकों का सामूहिक प्रतिनिधित्व करती है । यद्गुहागहनगर्भसंचरनिरीकलितकाकलीरवैः । व्यग्रिते सति मृगे निजांकगे शंकितः किल विलम्बितो विधः ॥ १.३६ स्फाटिकाश्मकिरण करम्बितो राहुणा दुरववोधबिम्बभृत् । व्यन्तरीवदनलज्जितोऽप्यसौ यत्र तु तुष्यति तुषारदीधितिः ॥ १.४० यस्य सानुचयवृद्धिमुच्चकै विनों नतु विभाव्य भाविनः। वाजिनामनुजुशंकया करस्पृष्टपाद इव सांत्वनेऽभवत् ॥ १.४३ भोगिभिस्तलगुहाभिर्योगिभिर्मेखलावलय...."लिभिर्नरैः। निर्जरैरुपरिभूमिगत्वरैः यस्त्रिलोकविषयो विलोक्यते ॥ १.४८ चन्द्रोदय का कवित्वपूर्ण वर्णन भी बहुधा प्रौढोक्ति पर आधारित है । चन्द्रमा के उदित होने से सूर्य क्यों छिप जाता है ? कवि ने प्रजापति दक्ष तथा उनके जामाता (शंकर) द्वारा यज्ञध्वंस के पौराणिक रूपक से इसका ए प्टीकरण किया है। सूर्य दक्ष है, चन्द्रमा उसका जामाता । सूर्य (दक्ष) अपने जामाना (चन्दमा) का मृग देखकर, ध्वंस से बचने के लिये, भाग जाता है । कवि को सूर्य के अस्त होने का निश्चित कारण मिल गया है! उधर उसे विश्वास है कि ओषधनि चन्द्रभा नित्यप्रति
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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