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________________ सुमतिसम्भव : सर्वविजयगणि ३३६ काव्य में उपलब्ध सूत्रों के आधार पर इसका रचनाकाल निश्चित करना कठिन नहीं है । भुमतिसम्भव की एकमात्र ज्ञात हस्तप्रति सम्वत् १५५४ में इलदुर्ग (ईडर) में लिखी गयी थी। काव्य में, जावड़ द्वारा सम्वत् १५४७ में की गयी प्रतिमा-प्रतिष्ठा का वर्णन होने के कारण यह उस वर्ष (संवत् १५४७) तथा पूर्वोक्त हस्तप्रति के प्रतिलिपि-काल, सम्बत् १५५४, के मध्य लिखा गया होगा। अन्तिम भाग के नष्ट हो जाने से यह कहना सम्भव नहीं कि काव्य में नायक के निधन का उल्लेख था अथवा नहीं । किन्तु इसके शीर्षक को देखते हुए अधिक सम्भव यही है कि यह वर्णन काव्य में नहीं था । अतः काव्य-रचना की अन्तिम सीमा सम्बत् १५५१ निश्चित होती है। सर्वविजय का अन्य काव्य, आनन्दसुन्दर, इससे पूर्व की रचना है क्योंकि उसमें सुमतिमाधु, जिनका स्वर्गारोहण सम्बत् १५५१ में हुआ था, के जीवित होने का संकेत है। कथानक सुमतिसम्भव के आठ सर्गों में जैनाचार्य सुमतिसाधु का जीवनवृत्त वर्णित है । काव्य का प्रारम्भ दो पद्यों के मंगलाचरण से हुआ है, जिनमें क्रमशः आदिदेव तथा वाग्देवी की स्तुति की गयी है । तत्पश्चात् प्रथम सर्ग में मेवाड़, उसकी राजधानी चित्रकूट (चित्तौड़), उसके शासकों तथा पर्वतमाला का कवित्वपूर्ण वर्णन है। अपने अतुल वैभव के क रण मेवाड़ सम्राट्-सा प्रतीत होता है । उसके शासकों में राजा कुम्भकर्ण (राणा कुम्भा) के पराक्रम, दानशीलता तथा अन्य सद्गुणों का विस्तृत वर्णन किया गया है । द्वितीय सर्ग के उपलब्ध भाग में ज्यायपुर, वहाँ के धनवान् श्रावकों, श्रेष्ठी सुदर्शन तथा उसकी रूपवती पत्नी संपूरदेवी का रोचक वर्णन है । सुदर्शन तथा संपूरदेवी सम्भवतः काव्य-नायक के माता-पिता थे । इस सर्ग के लुप्त भाग में संपूरदेवी के स्वप्नदर्शन तथा गर्भाधान का वर्णन रहा होगा। तृतीय सर्ग की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इसके प्रथम तीस पद्यों में, जो नष्ट हो चुके हैं, कुमार के जन्म तथा शैशव का चित्रण किया गया था। प्राप्त अंश में कुमार प्रारम्भिक विद्याभ्यास के पश्चात् चारित्र्यलक्ष्मी का पाणिग्रहण करने का निश्चय करता है । चतुर्थ सर्ग में कुमार दीक्षा ग्रहण करने के लिये प्रस्थान करता है। यहीं उसे देखने को लालायित पौर युवतियों की चेष्टाओं का मनोरम चित्रण हुआ है। दुर्भाग्यवश उसके प्रव्रज्या-ग्रहण के वर्णन वाले पद्य का वह अंश नष्ट हो चुका है, जिसमें सम्वत् ३. सम्वत् १५५४ वर्षे श्रीइलदुर्गमहानगरे हर्षकुलगणयः सुमतिसम्भवग्रंथमली लिखल्लेखकेन । ---लिपिकार की अन्त्य टिप्पणी।। ४. अथैष वर्षे तिथिवेदलोकपप्रतिमे । सुमतिसम्भव, ४.७ ५. द्रष्टव्य : डॉ० काउझे-'जावड़ ऑफ माण्डू' मध्यप्रदेश इतिहास-परिषद् की पत्रिका, अंक ४, पृ० १३४-१३५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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