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________________ सोमसौभाग्य : प्रतिष्ठासोम ३३५ विद्वानों में मानदेव, मानतुंग, बप्पभट्टि, हेमचन्द्रसूरि, सिद्धसेन तथा वज्रस्वामी को आदरपूर्वक स्मरण किया गया है। स्थूलभद्र द्वारा कोशा को प्रतिबोध देने का भी काव्य में प्रत्यक्ष सकेत है। सोमसुन्दरसूरि का शिष्यमण्डल : उसकी उपलब्धियां सोमसौभाग्य के दसवें सर्ग में गच्छपति सोमसुन्दर के पट्टधरों का संक्षिप्त वर्णन तथा उनकी साहित्यिक एवं धार्मिक उपलब्धियों का निरूपण है । इस सर्ग में तपागच्छ के इन जाचार्यों के विषय में अतीव मूल्यवान् सामग्री निहित है । सोमसुन्दरसूरि के प्रथम पट्टधर आचार्य मुनिसुन्दर ने अपने निर्मल चरित्र तथा अदम्य धर्मोत्साह से जैन शासन के अभ्युदय में अद्भुत योग दिया। उनकी प्रेरणा से रोहिणी नगर के शासक ने स्वयं मृगया का परित्याग किया तथा अपने राज्य में प्राणिहिंसा पर प्रतिबन्ध लगा दिया । मुनिसुन्दर देलवाड़ा में शान्तिस्तवन से महामारि के भयंकर प्रकोप को शान्त करके पहले ही विलक्षणता प्राप्त कर चुके थे। उनकी धर्म-प्रभावना की तुलना मानदेव तथा मानतुंग जैसे प्राचीन आचार्यों से की जाती थी।" जयचंद्रसूरि विभिन्न शास्त्रों के पारगामी विद्वान् थे। उनकी साहित्यशास्त्र, विशेषतः काव्यप्रकाश, की मर्मज्ञता की काव्य में विशेष चर्चा हुई है । बहुमुखी पाण्डित्य के कारण उन्हें 'कृष्णवाग्देवता' की अनुपम उपाधि से अलंकृत किया गया था। जिनसुंदर ग्यारह अंगसूत्रों के अधिकारी तथा सर्वमान्य विद्वान् थे ! अंगसूत्र उनके मानस में ऐसे स्थित थे जैसे (प्रलयकाल में) समस्त लोक विष्णु के उदर में समा जाते हैं ।३८ सूरिराज लक्ष्मीसागर तपागच्छ के विलक्षण आचार्य थे। वे महान शास्त्रार्थी, वाक्कला के बृहस्पति, सद्गुणों के भण्डार तथा परम धर्मोत्साही यति थे। काव्य में उनकी विविध उपलब्धियों का ग्यारह पद्यों में सविस्तार निरूपण किया गया है। उन्होंने जूनागढ़ के शासक की सभा में, शास्त्रार्थ में, विजय प्राप्त करके अपनी बहुश्रुतता तथा वाक्कौशल प्रमाण्ति किया था। उनकी कोमल वाणी में सुधावर्षी व्याख्यान सुनकर श्रोताओं का हृदय द्रवित हो जाता था। राजा सोमदास के विश्वासपात्र सल्हसाधु द्वारा रचित महोत्सव में उन्होंने लक्ष्मी की पीतल की प्रौढ़ (भारी) प्रतिमा की प्रतिष्ठा की, दक्षिग देश के महादेव के अनुरोध पर चलाटापल्ली में दो साधुओं को वाचकपद प्रदान किया, ७२ जिनालयों में चौबीस तीर्थंकरों के बिम्बपट्ट प्रतिष्ठित किए तथा वाचक शुभ रत्न को प्रवर सूरिपद पर अभिषिक्त किया। सोमदेव ३६. वही, १०.१-४ ३७. विद्वत्तया प्रथितयामितयात्र कृष्णवाग्देवतेति विरुदं गुरु यो दधार । वही १०.५ ___ अध्यापयद्वितुषमंतिषदां महाथ काव्यप्रकाशवरसम्मतिमुख्यशास्त्रम् । वही, १०.६ ३८. अंगानि योऽतरुदरं दरहृद्दधार रुद्रप्रमाणि भुवनानि यथा मुकुन्दः । वही, १०.८ ३६. वही, १००२१-३१
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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