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________________ ३२४ जैन संस्कृत महाकाव्य बीस वर्ष अल्पावस्था में, वाचक पद पर आसीन हुए। सात वर्ष पश्चात्, सम्वत् १४५७ में, इभ्य नरसिंह के अनुरोध से देवसुन्दर उन्हें अणहिल्लपत्तन में सूरिमन्त्र प्रदान करते हैं। छठे सर्ग में, देवसुन्दर के स्वर्गारोहण के बाद सोमसुन्दर गच्छ के नेतृत्व का भार संभालते हैं और एक अनाम नगर में महेभ्य देवराज की अभ्यर्थना पर, अपने विद्वान् शिष्य बाचक मुनिसुन्दर को सूरिपद पर अभिषिक्त करते हैं। मुनिसुन्दर तर्कपूर्ण संस्कृत भाषा के मेधावी वक्ता तथा आशुकवि थे। उनके काव्य की गंगा कलिकाल के कलुष का प्रक्षालन करती थी तथा उनके स्तवन आचार्य सिद्धसेन की कृतियों का स्मरण कराते थे ! श्रेष्ठी देवराज ने नवाभिषिक्त आचार्य के साथ शत्रुजय तथा रैवतक तीर्थों की यात्रा की। सातवें सर्ग में ईडरनरेश रणमल्ल के पुत्र पुंज का कृपापात्र यथार्थनामा गोविन्द तारणगिरि पर कुमारपाल द्वारा निमित विहार का जीर्णोद्धार करवाता है। गच्छनायक सोमसुन्दर उसकी प्रार्थना से जयचन्द्र वाचक को सूरिपद प्रदान करते हैं । जयचन्द्र की पदप्रतिष्ठा के पश्चात् गोविन्द ने संघसहित शत्रुजय, रैवतक तथा सोपारक तीर्थों की यात्रा की । उनके अधिष्ठाता देवों, आदिनाथ तथा नेमिप्रभु की वन्दना करके उसे भवसागर गोष्पद के समान प्रतीत होने लगा। गोविन्द ने आचार्य से तारणगिरि पर अजितनाथ की प्रतिमा की स्थापना भी करवाई। वहीं अटकपुरवासी शकान्हड ने गच्छनायक से तपस्या ग्रहण की तथा वादिराज श्रीपण्डित को वाचक पद प्रदान किया गया। इन अवसरों पर गोविन्द ने गुरु की अभूतपूर्व अर्चा तथा संघ की परिधापनिका की। आठवें सर्ग में आचार्य सोमसुन्दर सर्वप्रथम, देवकुलपाटक (देलवाड़ा) में, संघपति निम्ब के अनुरोध पर,वाचक भुवनसुन्दर को सूरिपद पर प्रतिष्ठित करते हैं । कर्णावती के बादशाह के आदरपात्र गुणराज के बन्धु आम्रसाधु ने गुरु के सुधावर्षी उपदेश से प्रबोध पाकर उनसे प्रव्रज्या ग्रहण की । गुणराज ने आचाय के साथ शत्रुजय की यात्रा की। वापिस आते समय सोमसुन्दरसूरि ने मधुमती (महुवा-सौराष्ट्र) में जिनसुन्दर को सूरिमन्त्र प्रदान किया। रैवतक पर्वत पर संघपति ने गुरु के साथ नेमिप्रभु को प्रणिपात किया । नवां सर्ग गुरु सोमसुन्दर के निर्देशन तथा नेतृत्व में सम्पादित अनेक धार्मिक कृत्यों की विशाल तालिका से परिपूर्ण है। दसवें सर्ग में उनके पट्टधरों तथा अन्य शिष्यों की परम्परा का वर्णन है। सोमसौभाग्य में आचार्य सोमसुन्दर के जीवनवृत्त के परिप्रेक्ष्य में दीक्षा, पदप्रतिष्ठा, प्रतिमास्थापना तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के विस्तृत वर्णन किये गये हैं, जिन्हें पढता-पढता जैनेतर पाठक ऊब सकता है, किन्तु जैनाचार्य के जीवन की सार्थकता तथा गरिमा इन्हीं कृत्यों में निहित है। धार्मिक उपलब्धियों से शून्य धर्मनेता का जीवन निरर्थक है । उधर प्रतिष्ठासोम ने अपनी सुरुचिपूर्ण शैली से काव्य को सरस बनाने का श्लाघ्य प्रयास किया है, और इसमें वह सफल भी हुआ है । जिन
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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