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________________ कुमारपालचरित : चारित्रसुन्दरगणि २६६ अस्त्वेवमेवं निगदन्नरेशोऽलुनाच्छिरस्तस्य शितासिना सः। कृतान्ततुल्यं तमवेत्य सर्वः सभाजनः क्षोभमवाप बाढम् ॥ ३.२.२६ आचार्य हेमचन्द्र से सम्पर्क होने के पश्चात् उसकी जीवनधारा नया मोड़ लेती है । उनके आदेशानुसार वह पाटन में अपने कुलदेवता भगवान शंकर का मन्दिर बनवाता है । कालान्तर में वह परम्परागत शैव धर्म छोड़ कर आहेत धर्म स्वीकार करता है। उनकी सत्प्रेरणा से वह जीवहिंसा पर प्रतिबन्ध लगाता है, स्वयं मांसमदिरा आदि दुर्व्यसन छोड़ देता है, तीर्थयात्रा करता है तथा सम्पत्ति-अधिकार का पाशविक नियम तथा पशुबलि की क्रूर प्रथा समाप्त कर देता है और आचार्य के मुख से तिरेसठ शलाकापुरुषों का चरित सुनता है । नव-धर्म के प्रति उसके उत्साह तथा निष्ठा का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि वह नाना पारितोषिक देकर प्रजाजनों को तत्परता से जैनधर्म में दीक्षित करता है। वह जैनधर्म की अहिंसा का सन्देश जन-जन तक पहुँचाने को आतुर है। इसके लिये बल-प्रयोग करने में भी उसे हिचक नहीं। कुमारपाल के चरित में क्रूरता तथा दयालुता का विचित्र समन्वय है । हेमचन्द्र ___ आचार्य हेमचन्द्रसूरि कुमारपाल के आध्यात्मिक गुरु तथा पथप्रदर्शक हैं । वे महान् पण्डित तथा विभूतिसम्पन्न महापुरुष हैं। शैशव में ही उनकी दिव्यता का परिचय मिलता है । दस वर्ष की अल्पावस्था में विजयी जयसिंह को भावपूर्ण आशीर्वाद देकर वे सबको विस्मित कर देते हैं। वे अपनी ध्यानशक्ति से कुमारपाल के दिवंगत माता-पिता को प्रकट करते हैं, मंत्रबल से देवी कण्टेश्वरी तथा यवनराज को बांधते हैं तथा कुमारपाल के पूर्वजन्म का वर्णन करते हैं । कुमारपाल को जैनधर्म में दीक्षित करने तथा उसे दुर्व्यसनों से उबार कर जनहित में प्रवृत्त करने का श्रेय हेमचन्द्र को है। कुमारपाल उन्हें अपना सच्चा हितैषी तथा मार्गदर्शक मानता है और गाढ़े समय में सदैव उनके परामर्श के अनुसार आचरण करता है। कुमारपाल के जीवन में आचार्य इतने घुले-मिले हैं कि उनके बिना उसकी कल्पना करना सम्भव नहीं है। वह उनकी छाया-मात्र है। उनके स्वर्गारोहण से कुमार को जो प्रबल आघात लगा, वह आचार्य के गौरव तथा उनके प्रति कुमारपाल की असीम श्रद्धा का प्रतीक है। उदयन उदयन चालुक्यनरेश का प्रिय मन्त्री है। वह रणकुशल तथा वीर योद्धा है। वह बलशाली सौराष्ट्रनरेश को परास्त करने में सफल होता है किन्तु इस सफलता के लिये उसे अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है। कुमारपाल को उसके निधन से बहुत दुःख होता है, जो उसकी स्वामिभक्ति का द्योतक है।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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