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________________ हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि २८७ में योग देते हैं। छन्दयोजना नयचन्द्र की काव्यशास्त्रीय मान्यता में निर्मल अर्थ तथा विशुद्ध शब्द के अतिरिक्त भावानुकूल मधुर छन्द कवि की कीर्ति का आधार है । हम्मीरमहाकाव्य में छन्दों का प्रयोग कवि के इस सिद्धान्त की पूर्ति करता है। दसवें सर्ग में नाना वृत्तों की योजना भी शास्त्रानुकूल है। इस सर्ग की रचना में जो तेरह छन्द प्रयुक्त किये गये हैं, वे इस प्रकार हैं--वियोगिनी, स्वागता, स्रग्धरा, मंजुभाषिणी, शालिनी, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, वसन्ततिलका, रथोद्धता, आर्या, शार्दूलविक्रीडित, कलहंस तथा एक अर्द्ध समवृत्त । इनके अतिरिक्त नयचन्द्र ने शिखरिणी, मालिनी, तोटक; इन्द्रवंशा, मन्दाक्रान्ता, ललिता, प्रमिताक्षरा, द्रुतविलम्बित, भुजंगप्रयात, अनुष्टुप् तथा प्रहर्षिणी से मिलता-जुलता एक छंद (म स ज र ग) को काव्य रचना का आधार बनाया है। हम्मीरमहाकाव्य में चौबीस छन्द प्रयुक्त हुए हैं । उपजाति नयचन्द्र का प्रिय छन्द है। नयचन्द्रसूरि के साहित्यिक आदर्श काव्यकला के प्रति जागरूक नयचन्द्र ने चौहदवें सर्ग के अन्त में अपनी काव्यशास्त्रीय धारणाओं का भी कुछ आभास दिया है । साहित्यशास्त्र के सिद्धान्तों का निरूपण करना कवि का लक्ष्य नहीं है, किन्तु ये प्रासंगिक उल्लेख रोचक तथा विचारणीय हैं । नयचन्द्र का निर्धान्त मत है कि सरस काव्य की रचना का आधार अनुभवमात्र नहीं है । कवि का कवित्व उतना ही स्वभावजन्य है जितना चपलनयना युवतियों का तारुण्य । वस्तुतः, बहुत सी बातें तो अनुभव के आधार पर सिद्ध ही नहीं होती। शृंगार-वर्णन के लिये अनुभव को आवश्यक मानना भी वास्तविकता के अनुकूल नहीं है । जगत् में श्रृंगार का अनुभव तो अगणित व्यक्तियों को है, किन्तु वे सभी शृंगार के सिद्धान्तकार अथवा महाकवि नहीं हैं। इसके विपरीत कामशास्त्र के प्रणेता तथा शृंगाररस के अनेक प्रतिभाशाली कवि वीतराग तपस्वी हैं। आचार्य वात्स्यायन तथा कवि अमर जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी थे । स्वयं वाग्देवी कुमारी है । तथ्य यह है कि अपनी वाणी के विलास से शृंगार-माधुरी की सृष्टि करने वाले रससिद्ध कवि तो शृंगार के प्रत्यक्ष अनुभव से शून्य हैं और जो उसके अनुभव से सम्पन्न हैं, उनमें से अधिकतर की काव्यरचना में क्षमता तो दूर, साहित्य में साधारण गति भी नहीं है । हाथी के दांत भी खाने के और होते हैं, दिखाने के और । इस प्रकार नयचन्द्र ने काव्य-सृजन में अनुभव के महत्त्व को स्पष्ट अस्वीकार किया है। ६१. क्रमशः १. १२. ४.६५, ६.६६, ११.५२, ४.६७, १३.१४६, ६.१०, ६.५४, ६.७१, ४.१५७, ३.२४, ४.३६, २.८३. ६२. हम्मीरमहाकाव्य, १.४६ ६३. वही, १४.२६-३३
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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