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________________ आलोच्य महाकाव्यों की प्रवृत्तियाँ तथा विशेषताएं १५ जैन कवि विद्वत्ता प्रदर्शित करने के लिए साहित्य-रचना में प्रवत्त नहीं हुए, यद्यपि उनकी विज्ञता में सन्देह नहीं है । मेघविजय के एकमात्र अपवाद को छोड़कर आलोच्य काल के कवियों के लिए अलंकार साध्य नहीं हैं। वे अभिव्यक्ति के साधन हैं। जैन कवि काव्यसंदर्भ' की सौन्दर्यवृद्धि के उपकरण के रूप में अलंकारों के महत्त्व से पूर्णतया परिचित हैं, परन्तु उन्होंने अलंकारों के औचित्यपूर्ण प्रयोग का ही समर्थन किया है। फिर भी शास्त्रकाव्यों तथा कतिपय शास्त्रीय महाकाव्यों में न केवल श्लेष तथा यमक के द्वारा रचनाकौशल प्रदर्शित करने का साग्रह प्रयत्न दिखाई देता है बल्कि चित्रकाव्यों के विविध रूपों से चमत्कार भी उत्पन्न किया गया है । श्लेष तथा यमक का जघन्यतम रूप देवानन्दमहाकाव्य, सप्तसन्धान तथा दिग्विजयमहाकाव्य में मिलता है। अर्थालंकारों में से उपमा से इन कवियों का विशेष अनुराग है । कुछ काव्यों में प्रयुक्त उपमाओं की गणना साहित्य की उत्तम उपमाओं में की जा सकती है। प्राचीन महाकाव्यों की तरह इनमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों तथा शास्त्रों से अप्रस्तुत ग्रहण किये गये हैं। उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अप्रस्तुत प्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, दृष्टांत, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगिता, समासोक्ति आदि चमत्कारजनक अलंकारों की भी जैन महाकाव्यों में कमी नहीं है । विवेच्य युग के महाकाव्यों ने छन्दों के प्रयोग में शास्त्रीय नियम का पालन किया है । सर्ग में एक छन्द की प्रधानता, सर्गान्त में छन्दपरिवर्तन तथा एक सर्ग में नाना छन्दों का प्रयोग–यह शास्त्रीय बन्धन इन कवियों को मान्य है। पौराणिक काव्यों तथा स्थूलभद्रगुणमाला में आद्यन्त अनुष्टुप् का प्रयोग सरलता की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है। श्रीधरचरित में छन्दों के प्रायोगिक उदाहरण प्रस्तुत करने की व्यग्रता के कारण ६६ छन्द प्रयुक्त कर कीत्तिमान स्थापित किया गया है। इनमें एकाक्षर 'श्री' से लेकर 'दण्डक' तक विविध छन्द शामिल हैं। श्रीधरचरित की विशेषता यह है कि इसमें पहले छन्दों के लक्षण दिये गये हैं, फिर उन्हें उदाहृत किया गया है । इसमें वदनक, अडिल्ला, आख्यानकी, षट्पदी, चण्डकाल, मृदंग, क्रौंचपदा, हलमुखी, पद्धटिका, सुदत्तम् आदि ऐसे छन्द भी हैं जिनका शायद ही अन्यत्र प्रयोग हुआ हो । अन्य महाकाव्यों में भी अप्रचलित छन्दों के प्रयोग के द्वारा छन्दशास्त्रीय ज्ञान प्रकट करने की प्रवृत्ति है। कुछ छन्द प्राकृत तथा अपभ्रंश से प्रभावित हैं। ३०. सालंकारः कके काव्यसमर्म इव व्यभात् ।-पार्श्वनाथमहाकाव्य, ३.१५६ ३१. ययौचित्यमलंकारान् स्थापयामास पार्थिवः।-पारवनाथचरित, ४.२६१
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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