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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य वर्षाकाल की बयार का यह वर्णन प्रकृति के आलम्बन - पक्ष का चित्र प्रस्तुत करता है । मालती तथा कुटज की गन्ध से सिक्त, जलकणों से शीतल तथा लताओं को नचाने वाला पवन किसका मन मोहित नहीं करता ! २७६ मालतीकुटजामोदहारी स्पृष्टपयः कणः । लतालास्यकलाचार्यो ववौ वर्षासमीरणः ॥ १३.६३ नयचन्द्र ने प्रकृति पर मानवोचित चेष्टाओं का पटुता से आरोप किया है । हम्मीरमहाकाव्य के प्रकृति-वर्णन के सभी प्रसंगों के कुछ अंश कवि की इस प्रवृत्ति द्योतित करते हैं । प्रकृति के मानवीकरण से काव्य के प्राकृतिक बिम्बों में समर्थता तथा सम्प्रेषणीयता आई है । हम्मीरकाव्य की प्रकृति के मानवीकरण की विशेषता यह यह है कि माघ आदि की तरह उसके अप्रस्तुत शृंगारिकता से आच्छन्न नहीं हैं । वे अधिकतर लोक व्यवहार, कवि के अनुभव तथा पर्यवेक्षण-शक्ति पर आधारित हैं । अस्तोन्मुख सूर्य को निम्नोक्त पद्य में पथिक के रूप में प्रस्तुत किया गया है । जैसे लम्बे रास्ते को पैदल तय करने वाला यात्री स्नानादि से अपनी क्लान्ति को दूर करता है उसी प्रकार सूर्य दिन भर आकाश के अनन्त मार्ग पर चल कर थकावट से चूर हो गया है । सन्ध्या के समय वह अपनी थकान मिटाने के लिये पश्चिम-पयोधि में घुस कर जलक्रीड़ा कर रहा है । अविरताम्बरसंचरणोल्लसद् गुरुपरिश्रमसंगत विग्रहः । सलिलकेलिचिकीरिव वाहिनीदयितमध्यमगाहत भास्करः ॥७.४ अष्टम सर्ग की प्रकृति मानवी भावनाओं से अधिक अनुप्राणित है । इसमें प्रकृति के मानवीकरण के कई सुन्दर चित्र अंकित हुए हैं और प्रत्येक दूसरे से अधिक मोहक है । समाप्तप्राय: रात्रि को रजस्वला का रूप देकर कवि उसकी आभाहीनता तथा मलिनता को सहजता से रेखांकित कर दिया है । रजस्वला मुख की कान्ति मलिन पड़ जाती है, वस्त्र मैले कुचले हो जाते हैं । अपनी कलुषता के निवारणार्थ वह स्नान आदि अनेक उपाय करती है और इस प्रकार पूर्व - सौन्दर्य को पुनः प्राप्त करती है । प्रभात में रात्रि के मुख, चन्द्रमा की शोभा भी लुप्त हो गयी है और तारों के छिपने से उसकी काया पीली पड़ गयी है । इस मालिन्य को दूर करने के लिये ही वह सागर में स्नान करने जा रही है । विच्छायमिन्दुं मुखमावहन्ती विनिम्नताराकलुषाम्बरैषा । विभावरी याति रजस्वलेव स्नातुं पयोधौ दिशि पश्चिमायाम् ॥ ८.२ सूर्योदय के प्रसंग में पूर्व दिशा को शठ नायक के व्यवहार से क्रुद्ध नारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यहाँ चन्द्रमा अपनी पत्नी ( पूर्व दिशा ) को छोड़कर अपरा ( पश्चिम दिशा) का भोग करने वाला शठ नायक है और पूर्व दिशा उसके
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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