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________________ २६८ जैन संस्कृत महाकाव्य जलकेलि के अन्तर्गत विलासितापूर्ण चेष्टाओं तथा सप्तम सर्ग में रतिक्रिया के वर्णन में उनकी यह कामशास्त्रीय विशारदता खूब प्रकट हुई है। दुःखान्त काव्य में शृंगार का वह ठेठ चित्रण माघकाव्य के प्रासंगिक वर्णनों के प्रभाव का फल है। माघ की तरह नयचन्द्र ने भी इस प्रकरण में नायिका के मुग्धा, प्रोढा, खण्डिता, कलहान्तरिता आदि भेदों तथा उनके बिब्बोक, कुट्टमित, किलकिंचित आदि भावों का साग्रह निरूपण किया है। नयचन्द्र एक कदम आगे बढ़ गये हैं। उन्होंने अभिधा-प्रणाली से विपरीतरति, वीर्य-स्खलन, सम्भोग के तुरन्त बाद पुनः रतिक्रीडा में प्रवृत्त होने, नवोढा के सम्भोग के समय हाथों से योनि को ढकने तथा अंगों को सिकोड़ने आदि निषेध-चेष्टाओं का इस मुक्तता से वर्णन किया है कि हम्मीरकाव्य का यह प्रसंग कुरुचिपूर्ण अश्लीलता, बल्कि निर्लज्जता, से आच्छादित हो गया है। माघ का शृंगारचित्रण भी अश्लील है परन्तु नयचन्द्र का सम्भोग-वर्णन मर्यादा तथा शालीनता की सब सीमाएं पार कर गया है। कामशास्त्र के क्षेत्र में माघ को यदि कहीं मात मिली है, वह संयमवादी जैन साधु नयचन्द्र के हाथों, हम्मीरकाव्य में । हम्मीरकाव्य का शृंगार-वर्णन हिन्दी के रीतिकालीन काव्यों के वातावरण का आभास देता है। नयचन्द्र भट्टि अथवा माघ की कोटि के वैयाकरण तो नहीं है । कम से कम उन्होंने अपने व्याकरण के पाण्डित्य का उस प्रकार प्रदर्शन नहीं किया। किन्तु हम्मीरमहाकाव्य से उनके शब्दशास्त्रीय ज्ञान की गम्भीरता का पर्याप्त परिचय मिलता है । उनके विचार में व्याकरण का पाण्डित्य मूलसूत्र तथा व्याख्यासहित वृत्ति (काशिका?) के सम्यक् परिशीलन से प्राप्त होता है। स्वयं नयचन्द्र ने अष्टाध्यायी तथा काशिका का सूक्ष्म अध्ययन किया होगा। इसलिये हम्मीरमहाकाव्य में व्याकरण के विद्वत्तापूर्ण प्रयोगों का प्राचुर्य है" । काव्यशास्त्र, अलंकार तथा छन्दः शास्त्र पर भी नयचन्द्र का पूरा अधिकार है । उनकी कतिपय साहित्य-शास्त्रीय मान्यताओं की आगे २७. वही, ७.८३, ६०, १२१, १०३, १०१, ११२, ११६, आदि । २८. बलाबलं सूत्रगतं विचार्य सविग्रहां यो विदधीत वृत्तिम् । ___स एव तत्तद्गुरुगौरवाहशास्त्रज्ञधुर्यत्वमुपैति तात ॥ वही, ६. १०५ २६. कुछ व्याकरणनिष्ठ प्रयोग द्रष्टव्य हैं (अ) चिकीर्षयात्मनीनस्य सस्मार परमात्मनः। वही, ४.७८ (आ) पचेलिमफलोदया, भिदेलिमतमायति (४.८७), दधिवांसः (४.११५,) सौख्यनाडिधमाः (४.११५), उरःपूरं, दूर्वालावं (१३.२२२), लोकंपृण, मुष्टिधय (१४.१) (इ) अदुग्धायन्त, ऐक्षयष्टीयन्त, अचन्दनायन्त (४.१२२) (ई) अद्धिष्ट (४.३६) समनीनहत् (१२.११), अचीखनत् (१३.४७), मा दात् (१३.८४), मा प्राहिषुः (१३.२२६), उपाक्रांस्त (१३.१४७)
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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