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________________ हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि २६३ 'कपानक हम्मीरमहाकाव्य चौदह सों की विशाल कृति है, जिसकी पद्य-संख्या १५७६ है। प्रथम दो सर्गों में चाहमान वंश के काल्पनिक उद्गम तथा दीक्षित वासुदेव से पृथ्वीराज द्वितीय तक उसके प्रारम्भिक शासकों का कवित्वपूर्ण वर्णन है । तृतीय सर्ग में साहबदीन (शहाबुद्दीन · गोरी) से त्रस्त पश्चिमी देश के राजा, गोपाचल-नरेश चंद्रराज के नेतृत्व में, रक्षा के लिये पृथ्वीराज से प्रार्थना करते हैं। पृथ्वीराज शहाबुद्दीन को दण्डित करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता है । सात बार निरन्तर विजय प्राप्त करने के पश्चात् आठवीं बार वह छलपूर्वक बन्दी बना लिया जाता है। शहाबुद्दीन क्रुद्ध होकर उसे किले में चिनवा देता है। चतुर्थ सर्ग में हरिराज की विलासिता तथा उसके कारुणिक अन्त, शकराज के. अजमेर पर आक्रमण के फलस्वरूप उसके मन्त्रियों के रणथम्भोर में आश्रय लेने, प्रह्लादन के - असामयिक मरण, उसके पुत्र वीरनारायण के दिल्लीराज द्वारा कपटपूर्ण वध तथा वाग्भट के मालवराज के षड्यन्त्र से बचकर पुनः रणथम्भोर पर अधिकार करने की विस्तृत घटनाएं वर्णित हैं। वाग्भट के प्रतापी. पुत्र जैत्रसिंह के तीन पुत्र थे-सुरत्राण, हम्मीर तथा वीरम। पांचवें से आठवें सर्ग के प्रारम्बिक भाम तक महाकाव्य-सुलभ विषयान्सर दृष्टिगत होते हैं। इनमें क्रमशः वसन्त, क्नविहार, जलकीड़ा, सम्भोग तथा प्रभात का वर्णन है । भगवान् विष्णु के आदेश से जैत्रसिंह ने सं० १३३६ की पौष पूर्णिमा, रविवार को, हम्मीर को राज्याभिषिक्त किया और स्वयं आत्महित की साधना के लिये श्रीआश्रम नासक. पत्तन को प्रस्थान किया किन्तु मार्ग में लूताप से उनका देहान्त हो गया। नवम सर्ग में हम्मीर द्वारा कर देना बन्द करने से ऋर होकर -अलाउद्दीन अपने भाई उल्लूखान को रणथम्भोर के विकटवर्ती प्रदेश को नष्ट-भ्रष्ट - करने के लिये भेजता है। हम्मीर दिग्विजय के पश्चात् व्रतस्थ था, यतः प्रधान्तमात्य धर्मसिंह के आदेश से सेनापति भीमसिंह ने बनास के तट पर शकसेना पर आक्रमण किया। राजपूतों के प्रबल प्रहार से- सकसेना भाग उठी, किन्तु धर्मसिंह के प्रमाद से सेनापति विजयी होकर भी घिर गया और बुद्ध कस्ता हुआ? वीरगति को प्राप्त हुआ। व्रतपूर्ति के पश्चात् हम्मीर ने धर्मसिंह के माधरण को अन्धता तथा 'नपुंसकता की संज्ञा देकर उसे वस्तुतः अन्धा और नपुंसक बनवा दिया और 1 पद से च्युत कर दिया। धर्मसिंह का पद उसने खडमधारी भोज को दिया। भोज 'देव अर्थसंचय में कुशल नहीं था, अतः अपनी शिष्या नर्तकी धारादेवी की सहायता 'से धर्मसिंह पुनः प्रधानामात्य पद प्राप्त करने में सफल हुआ। उसने नाना प्रकार के अनुचित कर लगाकर राजकोश को परिपूर्ण कर दिया । उसने भोवदेव से भी आयशुद्धि मांगी जिससे भोज को अपना सर्वस्व उसे देना पड़ा। जब 'लोभान्ध राजा ने भी उसका अपमान किया तो वह अपने अनुज पीथमसिंह के साथ तीर्थयात्रा के बहाने
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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