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________________ ११६ र संस्कृत महाकाव्य क्षमता का प्रदर्शन करना है, सरस कविता के द्वारा पायाका मनोरंजन करला नहीं। कायो इस मानदण्ड से आंकने पर ज्ञात होगा कि वह अपने लक्ष्य में पूर्णतः सफल हवा है । बाथ के गद्य की मीमांसा करते हुए वेबर ने जो शब्द कहे थे, वे सप्तसंचाल पर भी अक्षरशः सागू होते हैं। सलमुच सप्तसंधानमहाकाव्य एक बीहड़ वन है, जिसमें पाठक को अपने धैर्य, श्रम तथा विद्वत्ता की कुल्हाड़ी से झाड़-झंखाड़ काट कर अपना रास्ता स्वयं बनाना पड़ता है। भट्टिकाध्य की तरह यह व्याख्यागम्य' है। किन्तु व्याख्या की सहायता से श्रमपूर्वक काव्य के परिशीलन के बाद भी संस्कृत भाषा की असीम क्षमताओं की परिचिति के अतिरिक्त कुछ विशेष हाथ नहीं आता।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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