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________________ १२ जैन संस्कृत महाकाव्य में 'प्रपानक रस' का आकर कहा जा सकता है। इसके विपरीत कतिपय काव्य 'आत्मा' से लगभग शून्य हैं। उनमें रस के कुछ कण ही हाथ लगते हैं। वस्तुपालचरित, सुमतिसम्भव, विजयप्रशस्ति, देवानन्द महाकाव्य तथा सप्तसन्धान इस दृष्टि से निराशाजनक हैं। - कथानक को पुष्ट बनाने तथा उसमें विविधता और रोचकता लाने के लिए जैन महाकाव्यों में वस्तुव्यापार के नाना वर्णन मिलते हैं । इन सब का सिद्धान्त में विधान है२५ । इन वर्णनों की दोहरी उपयोगिता है। एक ओर इनमें कवियों की काव्यप्रतिभा का भव्य उन्मेष हुआ है, दूसरी ओर ये समसामयिक समाज का चित्र प्रस्तुत करते हैं। सभी काव्यों में कालिदास जैसा युगचित्रण सम्भव नहीं है किन्तु कुछ जैन महाकाव्यों में समाज के विभिन्न पक्षों की रोचक झलक दिखाई देती है । इन वस्तुव्यापारों में से कुछ की वर्णनशैली तथा उनमें प्रयुक्त रूढ़ियों के लिए जैन कवि कालिदास, माघ आदि प्राचीन महाकाव्यों के ऋणी हैं । रघुवंश के प्रभातवर्णन (पंचम सर्ग) ने कतिपय जैन महाकाव्यकारों को बहुत प्रभावित किया है। उन्होंने न केवल इसे सर्गान्त में स्थान देकर कालिदास की परम्परा का निर्वाह किया है बल्कि उसके अन्तर्गत प्रातःकाल हाथी के जाग कर भी मस्ती से आखें मूंद कर पड़े रहने तथा करवट बदलकर श्रृंखला रव करने और घोड़ों के नमक चाटने आदि रूढियों का भी रुचिपूर्वक प्रयोग किया है। वीरतापूर्ण कथानक में पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, सुरापान तथा सुरत के कामुकतापूर्ण वर्णनों पर माघ का प्रभाव स्पष्ट है । इनके अन्तर्गत नायिकाभेद के तत्परतापूर्ण निरूपण तथा सम्भोग की विविध मुद्राओं का स्रोत भी शिशुपालवध में ढूंढा जा सकता है । भारवि तथा माघ ने इन प्रसंगों के द्वारा अपनी असन्दिग्ध कामविशारदता प्रकट की है परन्तु बाद में इन प्रकरणों ने रूढि का रूप धारण कर लिया है । इन्हें उन काव्यों में, जिनमें इन्हें आरोपित करने से उनका उद्देश्य तथा गौरव आहत होता है, ठूसने में पवित्रतावादी जैन कवियों को कोई वैचित्र्य नहीं दिखाई देता, यह आश्चर्य की बात है । जैन महाकाव्यों के प्रकृतिचित्रण भी बहुधा माघ से प्रभावित हैं। उसी के अनुकरण पर जैन कवियों ने प्रकृति का अलंकृत चित्रण किया है और यमक का जाल बुनने में प्रकृतिचित्रण की सफलता मानी है । स्वयम्वर और उसके पश्चात् स्वीकृत युवा नरेश तथा तिरस्कृत राजाओं के युद्ध का प्रथम वर्णन रघुवंश के इन्दुमतीस्वयम्वर में मिलता है, जिसे श्रीहर्ष ने २५. काव्यानुशासन, पृ० ४५८-४५६ ____ साहित्यदर्पण, ६-३२२-३२४ २६. जैनकुमारसम्भव, १०.८०-८४; यदुसुन्दर, ७.७४-८२ आदि । २७. रघुवंश, ५.७२-७३; माघ, ११.७; नेमिनाथमहाकाव्य, २.५४
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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