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________________ सप्तसन्धानमहाकाव्य : मेघविजयगणि २५३ 'भूति को तीव्र बनाने अथवा भावव्यंजना को स्पष्टता प्रदान करने के लिए प्रयुक्त नहीं "हुए हैं। वे स्वयं कवि के साध्य हैं। उनकी साधना में लग कर वह काव्य के अन्य धमा को भूल गया है जिससे प्रस्तुत काव्य अलंकृति-प्रदर्शन का अखाड़ा बन गया मेघविजय ने अपने लिये बहुत भयंकर लक्ष्य निर्धारित किया है । सात नायकों के जीवनवृत्त को एक साथ निबद्ध करने के लिए उसे पग-पग पर श्लेष का आंचल पकड़ना पड़ा है । वस्तुतः श्लेष उसकी बैसाखी है, जिसके बिना वह एक पग भी नहीं चल सकता। काव्य में सभंग, अभंग, शब्दश्लेष, अर्थश्लेष, शब्दार्थश्लेष, श्लेष के सभी रूपों का प्रयोग हुआ है। पांचवें सर्ग में श्लेषात्मक शैली का विकट रूप दिखाई देता है। पद्यों को विभिन्न अर्थों का द्योतक बनाने के लिए यहाँ जिस श्लेषगर्भित भाषा की योजना की गयी है, वह बहुश्रुत पण्डितों के लिए भी चुनौती है । टीका की सहायता के बिना यह सर्ग अपठनीय है। निम्नोक्त पद्य के तीन अर्थ हैं, जिनमें से एक पांच तीर्थकरों पर घटित होता है, शेष दो राम तथा कृष्ण के पक्ष में । शास्त्रीय दृष्टि से यह सभंग और अभंग दोनों प्रकार के श्लेष का उदाहरण है। श्रुतिमुपगता दीव्यपा सुलक्षणलक्षिता सुरबलभृताम्भोधावद्रौपदीरितसद्गवी। सुररववशाद भिन्नाद् द्वीपान्नतेन समाहृता हरिपवनयोधर्मस्यात्रात्मजेषु पराजये ॥५.३६ अपने काव्य के निबन्धन के लिए कवि ने श्लेष की भाँति यमक का भी बहुत उपयोग किया है। काव्य में श्लेष के बाद कदाचित् यमक का ही सब से अधिक प्रयोग हुआ है। पदयमक के अतिरिक्त मेघविजय ने पादयमक, श्लोकार्द्धयमक; महायमक आदि का प्रचुर प्रयोग किया है। नगर-वर्णन की प्रस्तुत पंक्तियों से श्लोकार्द्धयमक की करालता का अनुमान किया जा सकता है। न गौरवं ध्यायति विनमुक्तं न मौरवं ध्यायति विप्रमुक्तम् । पुनर्नवाचारमसा नवार्थाशुनर्नवाचारमसानवा ॥१.५२ शब्दालंकारों में अनुप्रास को भी सप्तसंघान में पर्याप्त स्थान मिला है। श्लेष तथा यमक के तनाव में अनुप्रास की मोहक प्रांजलता सुखद वैविध्य का संचार करती है । अन्त्यानुप्रास में यह श्रुतिप्रिय झंकृति चरम सीमा को पहुंच गयी है । गंगा का यह मधुर वर्णन देखिये गंगानुषंगान्मणिमालभारिणी सुरवसेकामृतपूरसारणी। क्षेत्रामेशस्य रसप्रचारिणी सा प्रागुबूढा बनिसेव धारिणी ॥ १.१७ । शब्दों पर आधारित अलंकार मेघविजय के प्रिय अलंकार हैं क्योंकि उनमें
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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