SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५१ सप्तसन्धानमहाकाव्य : मेघविजयगणि में छह परम्परागत ऋतुओं का तथाकथित वर्णन किया गया है किन्तु चित्रकाव्य में इसका एकमात्र उद्देश्य महाकाव्य-रूढियों की खानापूर्ति करना है। मेघविजय ने प्रकृति-वर्णन में अपने भावदारिद्रय को छिपाने के लिये चित्र-शैली का आश्रय लिया है। श्लेष तथा यमक की भित्ति पर आधारित कवि का प्रकृति-वर्णन एकदम नीरस तथा कृत्रिम है । उसमें न मार्मिकता है, न सरसता । वह प्रौढोक्ति तथा श्लेष एवं यमक की उछल-कूद तक सीमित है । वास्तविकता तो यह है कि श्लेष तथा यमक की दुर्दमनीय सनक ने कवि की प्रतिभा के पंख काट दिये हैं। इसलिए प्रकृतिवर्णन में वह केवल छटपटा कर रह जाती है। मेघविजय ने अधिकतर ऋतुओं की स्वाभाविक विशेषताएं चित्रित करने की चेष्टा की है, किन्तु वह चित्रकाव्य के पाश से मुक्त होने में असमर्थ है । अतः उसकी प्रकृति श्लेष और यमक के चक्रव्यूह में फंसकर रह गयी है । वर्षाकाल में नदनदियों की गर्जना की तुलना हाथियों तथा सेना की गर्जना भले ही न कर सके, यमक की विकराल दहाड़ के समक्ष वह स्वयं मन्द पड़ जाती है। न दानवानां न महावहानां नदा वनानां न महावहानाम् । न दानवानां न महावहानां न दानवानां न महावहानाम् ॥७.२२ प्रकृति-वर्णन के जिन पद्यों के पाठक से एकाधिक अर्थ करने की अपेक्षा की जाती है, उन्हें उक्त वर्णन के अवयव न कह कर बौद्धिक व्यायाम का साधन मानना अधिक उपयुक्त है। वर्षाकाल सबके लिए सुखदायी है किन्तु रमणियों तथा दादुरों का आनन्द इस ऋतु में अतुलनीय है । परदेशगमन के मार्ग रुद्ध हो जाने से नारियां अपने प्रियतमों के साथ सुख लूटती हैं और जलधारा का सेक दादुरों का समूचा सन्ताप हर लेता है। प्रस्तुत पद्य में कवि ने पावस के इन उपकरणों का अंकन किया है, पर वह श्लेष की परतों में इस प्रकार दब गया है कि सहृदय पाठक उसे खोजता-- खोजता झंझला उठता है । फिर भी उसके हाथ कुछ नहीं लगता। अम्भोधरेण जनिता वनिता विशल्या ___ द्रोणाह्वयेन गिरिणा हरिणाभिनीता। कौशल्यहारिमनसा हरिमप्यशल्यं स्नानाम्भसैव विदधे त्वमुनादृतव ॥७.२० इन अलंकृतिप्रधान वर्णनों की बाढ़ में कहीं-कहीं प्रकृति का सरल रूप देखने को मिल ही जाता है। पावस की रात में कम्बल ओढ़कर अपने खेत की रखवाली करने वाले किसान तथा वर्षा के जल से भीगे गलकम्बल को हिलाने वाली गाय का यह मधुर चित्र स्वाभाविकता से ओतप्रोत है। रजनिबहुधान्योच्च रक्षाविधौ धृतकम्बलः सपदि दुधुवे वारांभाराद् गवा गलकम्बलः ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy