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________________ २३८ जैन संस्कृत महाकाव्य अहह दहति गात्रमत्र वह्नो ज्वलितमभूद् भुवनं शुचा किमन्यत् । अवहितमनसा जनैर्न सूरेः प्रणिदधिरे दयितरनङ्गलेखाः ॥ ७.४१ देवानन्द में वासुदेव, स्थिर, रुपा कनकविजय, चतुरा आदि कई पात्र हैं, किन्तु उनका चरित्र चित्रित करने में कवि की रुचि नहीं। वासुदेव (विजयदेवसूरि) काव्य का नायक है । वह ईडर के धनिक व्यापारी स्थिर का पुत्र है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषता निस्स्पृहता तथा विषयविमुखता है। माता का आग्रह तथा युक्तियां भी उसे भोग में प्रवृत्त नहीं कर सकीं। उसकी दृढ़ मान्यता है कि पारलौकिक सुख की तुलना में सांसारिक भोग तुच्छ हैं । संयमी, मुक्तिसुन्दरी का ही पाणिग्रहण करता है। इसलिए वह दीक्षा ग्रहण करके यतिपथ अपनाता है तथा अपनी प्रतिभा और गुणों के कारण शीघ्र ही आचार्य पद प्राप्त करता है। अपने गुरु के निधन के पश्चात् वे समाज पर एकच्छत्र शासन करते हैं और धर्मवृद्धि में महत्त्वपूर्ण योग देते हैं। उनके स्वर्गारोहण पर समाज में जो घनीभूत शोक छा जाता है, वह उनकी गरिमा तथा पूज्यता का सूचक है । रूपा काव्यनायक की माता है। उसके पिता स्थिर धनाढय इभ्य हैं । चतुरा एक श्रद्धालु श्राविका है, जो विविध अनुष्ठानों पर प्रचुर धन खर्च करती है तथा उदारतापूर्वक दान देकर पुण्यार्जन करती है। मेघविजय अलंकारवादी कवि है । देवानन्द में कवि ने समस्यापूर्ति-कौशल की भाँति अपनी अलंकार-प्रयोग की निपुणता का भी प्रदर्शन किया है । अलंकार चित्रकाव्य के अनिवार्य अवयव हैं । देवानन्द में जिस एक अलंकार का साग्रह व्यापक प्रयोग किया गया है, वह यमक है। यह मेघविजय की अपनी रुचि तथा उसके आधारभूत माघकाव्य के प्रभाव का परिणाम है। चौथे तथा छठे सर्ग में यमक का विकट रूप दिखाई देता है । काव्य में यमक की योजना चित्रकाव्य को प्रगाढ़ता प्रदान करने के लिए की गयी है, जिससे, इन प्रसंगों में, समस्यापूर्तिजन्य क्लिष्टता दूनी हो गयी है। ऋतु-वर्णन वाले छठे सर्ग में कवि ने यमक के झीने आवरण से भावपक्ष की दुर्बलता को ढकने का विफल प्रयास किया है । काव्य के इन प्रकरणों को पढ़ते समय पाठक को भयानक अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है। काव्य में अभंग तथा सभंग दोनों प्रकार के यमक का प्रयोग हुआ है । सभंग यमक का एक उदाहरण यहाँ दिया जाता है। सरोजिनीपत्रलवादरेण दृष्टोमिता चित्रलवा दरेण । राजी सशोभाऽजलजातपत्रविहंगमानां जलजा-तपत्रः॥४.८ यमक का विद्रूप श्लोकायमक में दिखाई देता है, जहां पद्य के पूरे एक घरण की आवृत्ति की जाती है। शिशुपालवध की तरह देवानन्द के छठे सर्ग में पादग्रमक की भरमार है।एक उदाहरण से काव्य के पादयमक की विकरालता का
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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