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________________ २३६ जैन संस्कृत महाकाव्य प्रकरण से स्पष्ट है । स्वयं उसका किस प्रकार नृशंस मर्दन किया है, यह पूर्वोक्त विजय की भाषा भी निर्मम तोड़-मरोड़ के बिना अपना अर्थ विवृत नहीं करती । यमक ने देवानन्द की भाषा की क्लिष्टता को दुरूहता में परिवर्तित कर दिया है। यमरम्य चतुर्थ सर्ग यमक की प्रगाढ़ता से कलंकित है पर उसका भयावह रूप षष्ठ सर्ग में विद्यमान है, जिसकी ग्रंथियों का भेदन करते-करते पाठक का धीरज टूट जाता है । श्लोका यमक के रूप में माघ से गृहीत द्वितीय तथा चतुर्थ पादों को अपने सांचे में ढालने की मेघविजय की कला चमत्कारजनक अवश्य है परन्तु वह पाठक को हतोत्साह करने का अमोघ साधन है । समस्यापूर्ति की चौहद्दी में बन्द होने के कारण देवानन्द की भाषा में बहुधा एकरूपता दृष्टिगत होती है। श्रृंगारिक प्रकरणों में भी कवि यमक के गोरखधन्धे में उलझा रहा है । किन्तु अपनी परिसीमाओं में रह कर भी मेघविजय ने भाषा में प्रसंगानुसार वैविध्य लाने का प्रयास किया है । प्रस्तुत पंक्तियों में भाषा की सरलता का कुछ आभास मिलता है । वासांसि लज्जावधये धृतानि स्वच्छानि नारीकुचमण्डलेषु । रतप्रवृत्तौ शतधा बभूवुः क्व वोन्नतानां तनुर्भिनरोधः ॥ ३.६४ लतामिच्छाखिषु तत्प्रवृत्ति हीरक्षणायेव वधूतानि । आकाशसाम्यं दधुरम्बराणि रतश्रमाम्भः पुषदाब्रितानि ॥ ३.६५ मेघविजय भावानुकूल पदावली का प्रयोग करने में समर्थ है, किन्तु देवानन्द - जैसे चित्रकाव्य में ऐसे अवसर बहुत कम हैं। उसकी भाषा, चाहे उसमें शृंगार की मधुरता हो अथवा करुणरस की विकलता, अधिकतर क्लिष्टता से ओतप्रोत है । देवानन्द को महाकाव्य का रूप देने की आतुरता के कारण मेघविजय ने इसमें नगर, पर्वत, षड्ऋतु आदि का तत्परता से वर्णन किया है । किन्तु काव्य में इनका समावेश प्रकृतिचित्रण के लिये कम, महाकाव्य परिपाटी का निर्वाह करने के लिये अधिक किया गया है । इसीलिये वे स्वाभाविकता से वंचित हैं । उनमें पिष्टपेषण अधिक हुआ है और वे सामान्यता के धरातल से ऊपर नहीं उठ सके । यमक तथा - चित्रकाव्य का आवरण कहीं-कहीं तो उसके सौन्दर्य को पूर्णतः ढक लेता है । स्मरणीय है कि छठे सर्ग के जिस भाग में ऋतु वर्णन किया गया है वह पादयमक से ऐसा संकुल है कि प्रकृति उसकी पर्तों में छिप गयी है । मेघविजय ने प्रकृति के उद्दीपन का अधिक पल्लवन किया है । शरत्काल की चांदनी रातें, हेमन्त की पुष्पित वनस्थलियां तथा शीतल समीर एक ओर प्रेमी युगलों कामावेश को बढ़ाती हैं, तो दूसरी ओर विरहियों के मन में टीस उत्पन्न करती हैं। ( ६.७०-७२ ) । देवानन्द में प्रकृति को मानव रूप में भी प्रस्तुत किया गया है यद्यपि यह बहुत विरल हैं। प्रकृति का मानवीकरण मानव तथा प्रकृति के मनोरागों के सायुज्य
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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