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________________ देवानन्द महाकाव्य : मेघविजयगणि भारवि की शाब्दी क्रीडा ने साहित्य में एक ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया कि परवर्ती कवि अहमहमिकया इस भाषायी जादूगरी की ओर आकृष्ट होने लगे । नानार्थक काव्य तथा शास्त्रकाव्य में यह प्रवृत्ति चरम सीमा को पहुंच गयी है । समस्या पूर्ति चित्रकाव्य का ही रूपान्तर है । पण्डित कवि मेघविजयगणि ने समस्या पूर्ति तथा नानार्थक - काव्य की रचना के द्वारा इस काव्यधारा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है । माघकाव्य का समस्यापूर्ति रूप उनका देवानन्दमहाकाव्य' सात सर्गों की अत्यधिक प्रोढ़ एवं अलंकृत कृति है । इसमें जैनधर्म के प्रसिद्ध प्रभावक, तपागच्छीय आचार्य विजयदेवसूरि तथा उनके पट्टधर विजयप्रभसूरि के साधुजीवन के कतिपय प्रसंग निबद्ध करने का उपक्रम किया गया है । कवि का वास्तविक उद्देश्य चित्रकाव्य के द्वारा पाठक को चमत्कृत करते हुए अपने पाण्डित्य तथा कवित्व शक्ति की प्रतिष्ठा करना है । इसलिए देवानन्द में चरितात्मकता का कंकाल चित्रकाव्य की बाढ़ में डूब गया है और यह मुख्यतः एक अलंकृति-प्रधान चमत्कारजनक काव्य बन गया है । प्रस्तुत अध्याय में इसका विवेचन करने का यही औचित्य है । देवानन्द का महाकाव्यत्व मापाततः शास्त्रीय दृष्टि से देवानन्द को महाकाव्य मानने में आपत्ति हो सकती है क्योंकि इसमें वे समूचे तत्त्व विद्यमान नहीं हैं, जिन्हें प्राचीन नालंकारिकों ने महाकाव्य के लिए आवश्यक माना है। वस्तुतः कवि की दृष्टि में चित्रकाव्य के समक्ष अन्य सभी काम्यधर्म तुच्छ हैं। इसकी रचना सर्गबद्ध काव्य के रूप में अवश् हुई है, किन्तु इसमें आठ से कम-सात-सर्ग हैं । पर जैसा अन्यत्र कहा गया है, कलिपय बाह्य तत्त्वों के अभाव अथवा अपूर्णता से महाकाव्य का स्वरूप विकृत नहीं होता । देवानन्द में शृंगार रस की कुछ रेखाएं प्रस्फुटित हैं, यद्यपि काव्य में शृंगार का न तो अंगीरस के रूप में परिपाक हुआ है और न यह कथानक की प्रकृति के अनुरूप है । पात्रों का चरित्र चित्रित करने में कवि को सफलता नहीं मिली है । परन्तु प्रत्येक महाकाव्य में समूचे शास्त्रीय लक्षणों के निर्वाह की अपेक्षा करना उचित नहीं । देवानन्द की गुरु-गम्भीर शैली, कवि की विद्वता -प्रदर्शन की प्रवृत्ति, चित्रकाव्य का १. सम्पादक: बेचरवास जीवराज दोशी, सिंधी चैन-वाणमाला, ग्रन्थांक ७, सन् १६३७
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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