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________________ २२० जैन संस्कृत महाकाव्य अलंकारविधान देवानन्द तथा सप्तसन्धान के समान दिग्विजयमहाकाव्य भी मेघविजय की अलंकारवादिता का प्रतीक है। जिस उद्देश्य से वह काव्य-रचना में प्रवृत्त हुआ था, उससे भटक कर वह काव्य की बाह्य साज-सज्जा में फंस गया है । इस साज-सज्जा के प्रमुख उपकरण अलंकारों के कुशल विधान में उसकी सिद्धहस्तता निर्विवाद है । मेघविजय के अन्य काव्यों की भांति दिग्विजयकाव्य में भी शब्दालंकारों की भरमार है। उन्हीं की तरह यहां अलंकार कवि के साध्य हैं। यमक की विकटता का कुछ संकेत पहले किया जा चुका है। दिग्विजयमहाकाव्य के छठे तथा सातवें, पूरे दो सर्गों में कवि ने यमक-योजना में अपने कौशल का तत्परता से प्रदर्शन किया है। सातवां सर्ग तो पादयमक से भरपूर है, जिसके अन्तर्गत अभंग तथा सभंग, दोनों प्रकार का यमक प्रयुक्त हुआ है । अभंग पादयमक का एक बहुत कठिन उदाहरण यहां दिया जाता है। पुरोगमैषी प्रयतः सधारणः साधोरणः कल्पितमत्तवारणः। पुरोगमैषी प्रयतः सधारणः प्रपीयतामित्युदिते न कोऽप्यभूत् ॥ ७.४८ भाषा को सशक्त तथा प्रौढ़ बनाने के लिए काव्य में यमक की भांति श्लेष का भी आश्रय लिया गया है। जैसा पहले कहा गया है, काव्य में श्लेष का प्रचुर प्रयोग है। गणधरों के विजय-अभियान अधिकतर श्लेषविधि से वणित हैं। उनमें सर्वत्र दो स्वतंत्र अर्थ व्यक्त नहीं होते । कुछ पद द्वयर्थक हैं, अन्य एकार्थक । महावीर स्वामी की दिग्विजय के प्रस्तुत पद्य में उनकी धार्मिक तथा सामरिक विजयों का भाव सन्निविष्ट है। संवर्धयन् समितितत्परसाधुलोके भावाद् गुणाधिकतया परमार्थवृत्तिम् । न्यस्यन्नपूर्वकरणे स नियोगिराजान् श्रीइन्द्रभूतिकलितश्चलितो बभासे ॥ ३:३१ श्लेष और यमक के इस आडम्बरपूर्ण वातावरण में अनुप्रास की सुरुचिपूर्ण योजना काव्य में श्रुतिमाधुर्य का संचार करती है। पार्श्व-प्रतिमा के इस वर्णन में अनुप्रास ने ध्वनि-सौन्दर्य को जन्म दिया है। ध्येयं परं सत्सुदशां विधेयं देवाभिधेयं कमलायुपेयम् । प्रसाधयन्ती सुरसार्थगेयं पटूकरोत्येव यशोऽधिपेयम् ॥ ८.१४८ कवि-कल्पना की भव्यता ने उत्प्रेक्षा का रूप भी लिया है । वाराणसी की गगनचुम्बी अट्टालिकाएं इसलिये आकाश की ओर बढ़ रहीं हैं, मानो वे यह देखना चाहती हों कि देवताओं के प्रभु-दर्शन के लिये पृथ्वी पर आ जाने के बाद स्वर्ग में कितने विमान शेष रह गये हैं ! देवागमादनु ननु धुपुरे कियन्तः शेषा विशेषरुचयो मरुतां विमानाः । आलोकितुं किमिति या नृणां निकासा उन यियासब इति प्रविभान्ति श्रृंगः॥ ११.८६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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