SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - २०६ जैन संस्कृत महाकाव्य हो ( ५.२६) । युवक स्थलभद्र को वशीभूत करने के लिए कोश्या ने अपनी नाभि 'दिखाई, मानो उसे शराब का प्याला भेंट कर दिया हो । ( ५.२९ ) स्थूलभद्रगुणमाला में उत्प्रेक्षा के बाद उपमा सबसे अधिक प्रयुक्त तथा महत्वपूर्ण अलंकार है । काव्य में अनेक मार्मिक उपमाएं भरी पड़ी हैं । गणधर गौतम के अनुगमन से तुच्छ व्यक्ति ऐसे महान् बन जाता है जैसे संयुक्त अक्षर का पश्चाद्वर्ती लघु वर्ण भी गुरु बन जाता है (१.६) । नील परिधान के बीच कोश्या के दान्तों की कान्ति मेघमाला में विद्युद्रेखा के समान चमक रही थी ( ५.२७ ) ! रतिकेलि की थकान से उत्पन्न स्वेदकणों से व्याप्त कोश्या ऐसे लगती थीं जैसे असमय में खिले - फूलों से आच्छादित जाती-लता । रतिकेलीश्रमो भूतस्वेदबिन्दुमती सती ! अकाले पुष्पिता जातीवाभाद् भ्रमरभोगदा ॥ १३.१२ इनके अतिरिक्त विभावना, श्लेष, यमक, सन्देह, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, काव्यलिंग, विरोधाभास, परिसंख्या, सहोक्ति आदि उन अलंकारों में से जिन्हें काव्य में भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया है । नन्दराज के घोड़ों का वर्णन अतिशयोक्ति के द्वारा किया गया है। उनसे भीत होकर सूर्य के घोड़े आकाश में यों छिपे कि अब भी वे पृथ्वी पर आने का साहस नहीं करते। यस्य सप्तिभिस्तप्ताः सूर्याश्वास्तत्यजुर्भुवम् । तदात्तगंधतायगावद्यापीयुर्न ग दिवः ॥ १.५२ पद्मिनी, कोश्या के प्रशंसा के द्वारा उसकी ओर और चन्द्रमा से यहां क्रमशः प्रस्तुत कोश्या और स्थूलभद्र व्यंग्य हैं । छन्द पूर्वराग का वर्णन करती हुई, स्थूलभद्र को अप्रस्तुत - आकृष्ट करने का प्रयास करती है । अप्रस्तुत पद्मिनी निरथं पचिनीजन्म यथा दृष्टो न चन्द्रमाः । व्यर्थजन्म तथान्जस्याप्येषा कुल्ला व्यलोकि नो ॥। ४.६४ 1 स्थूलभद्रगुणमाला आलोच्य युग का एकमात्र ऐसा महाकाव्य है, जिसमें, प्रारम्भ से अन्त तक एक, अनुष्टुप् छन्द का ही प्रयोग हुआ है । सर्गान्त में छन्दपरिवर्तन की खढ़ि का भी इसमें पालन नहीं किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र तथा कविराज विश्वनाथ ने अपने लक्षणों में कुछ ऐसे काव्यों का उल्लेख किया है, जिनकी 'रचना आद्यन्त एक ही छन्द में हुई थी। स्थूलभद्रगुणमाला उन्हीं की परम्परा में हैं ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy