SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थूलभद्रगुणमालाचरित्र : सूरचन्द्र १९७ हृदय को उत्तेजित करते चित्रित किया गया है। इसमें कोई नवीनता भी नहीं है । वर्षाकाल में यदि बादल की मन्द्र-मधुर गर्जना तथा बिजली की दमक कामिनियों नायकों की मनुहार करने को विवश करती है (१०.१०२), तो वसन्त के मनमोहक वातावरण में कोकिल - मिथुन की कामकेलि देखकर उनका धैर्य छूट जाता है और वे स्वयं ही नीवी शिथिल करती हुईं रति के लिए तैयार हो जाती हैं । पार्श्व स्थरमणेऽप्यत्र रामा रमणरागिणी । भवेन्नीवीं श्लथयन्ती कामाकुलकायिका ॥ १३-१४ माकंद मंजरीमूले पिकेन प्रेमतः पिकीं । resent वीक्ष्य वणिन्यो भवन्ति रमणोत्सुकाः ।। १३-२० सौन्दर्यचित्रण परिमाण की दृष्टि से स्थूलभद्रगुणमाला में प्रकृतिवर्णन के पश्चात् सौन्दर्यचित्रण का स्थान है । इन दो वर्णनों ने मिलकर काव्य का बहुत बड़ा भाग हड़प लिया है । द्वितीय सर्ग में स्थूलभद्र का सौन्दर्य-चित्रण परम्परागत पुरुष - सौन्दर्य का प्रतिनिधि है। पूरे तृतीय सर्ग तथा अन्य सर्गों के कुछ अंशों में कोश्या के नखशिखवर्णन के व्याज से नारी सौन्दर्य का सविस्तार वर्णन किया गया है । अन्य वर्णनों के समान सौन्दर्य-चित्रण में भी सूरचन्द्र ने अपने अप्रस्तुतों के भण्डार का उदारतापूर्वक प्रयोग किया है । पात्रों के कायिक वर्णन की उसकी अपनी विशिष्ट शैली है जिसमें विस्तार की प्रधानता है । प्रत्येक अंग तथा उपांग का उसने जम कर निश्चिन्तता से वर्णन किया है। एक-एक अंग के लिये वह बहुत सरलता तथा सहजता से कई-कई उपमान जुटा सकता है । कोश्या के स्तनों का वर्णन तो उसने सत्ताईस अप्रस्तुतों के के द्वारा किया है । इस अनावश्यक विस्तार में सभी कल्पनाएं उपयुक्त नहीं हो सकतीं । काश ! सूरचन्द्र यह स्मरण रखते कि अवांछनीय विस्तार कवित्व का हितैषी नहीं । नारी सौन्दर्य के चित्रण के प्रसंग में, सूरचन्द्र ने, कोश्या की वेणी से लेकर उसके पांवों के नखों तक को वर्णन का विषय बनाया है। उसके श्वास तथा वाणी के माधुर्य को भी कवि नहीं भुला सका । विस्तृत होते हुए भी इस वर्णन में यदि रोचकता बनी रहती है, इसका श्रेय कवि की कल्पनाशक्ति को है, जो एक से एक अनूठे उपमान ग्रथित करती जाती है । प्रस्तुत अंश से यह बात स्पष्ट हो जाएगी । सीमन्तं परितो यस्याः शस्यालीकेऽलकावली । जाने यौवनराजस्य चलन्ती चामरालिका ॥ ३.१७ मुखेन्दुमण्डले किंवा चकोरयुगलं स्थिरम् । fe वा मुखाब्जबिम्बेऽत्र क्रीडतो मृगखंजनौ ॥ ३.३६ यस्यास्तु सरलो बाहुर्मसृणोऽब्जमृणालवत् । कान्ताकल्लोलिनीलोलत्कल्लोल इव कल्पते ॥ ३.१०७
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy