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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य चौदहवें सर्ग में, उसे प्रेम-पत्र लिखती है, जिसमें वह अपनी मानसिक वेदना तथा शारीरिक क्षीणता का मार्मिक निरूपण करती है। तभी आचार्य सम्भूतिविजय विहार करते हुए वहां आते हैं। गुरु की अनुमति से स्थूलभद्र कोश्या की चन्द्रशाला में चातुर्मास व्यतीत करने आता है। प्राणप्रिय के आगमन से कोश्या का हृदय प्रफुल्लित तो हुआ किन्तु उसे परिवर्तित देखकर वह स्तब्ध रह जाती है । सोलहवें सर्ग में स्थूलभद्र उसे यौवन तथा सुख-भोग की निस्सारता का भान कराने के लिये वार्धक्यजन्य विकलता तथा विरूपता का वर्णन - करता है। "यौवन में जो शरीर कमनीय तथा आकर्षक होता है, बुढ़ापे का दैत्य उसका.सारा रक्त पी जाता है।" सतरहवें सर्ग में अपने हृदयेश्वर से स्नेहशून्य तथा वैराग्यपूर्ण उपदेश सुनकर कोश्या के आश्चर्य का ओर-छोर नहीं रहा। वह नाना चेष्टाओं से मुनि स्थूलभद्र को मनोरति' के लिये निमन्त्रित करती है किन्तु वह अचल तथा अडोल रहता है । उसकी धीरिमा तथा सच्चरित्रता के कारण कोश्या के हृदय में स्थूलभद्र के प्रति श्रद्धा तथा सम्मान का उदय होता है। 'वेश्या-विषधरी के वाग्दन्तों की गणना करते हुए भी जो मोह के विष से व्याप्त नहीं हुआ, वही शील का मन्त्रज्ञ है।" वह स्थूलभद्र से श्राविका का व्रत ग्रहण करती है और तत्परतापूर्वक उसका परिपालन करती है। स्थूलभद्र के गुरुभ्राता छद्ममुनि को पथभ्रष्ट होने से बचाकर वह अपनी सच्चरित्रता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है जिससे उसे साध्वी के समान मान्यता प्राप्त होती है । खरतरगच्छ के आचार्यों की परम्परा के वर्णन तथा प्रशस्ति से काव्य की समाप्ति की गयी है। - कथानक के नाम पर स्थूलभद्रगुणमाला में वर्णनों का जाल बिछा हुआ है । १३. सुखद संयोग है कि हमने जोधपुर की खण्डित प्रति के आधार पर स्थूलभद्रगुण माला की कथा परिणति तथा सर्ग संख्या की जो कल्पना अपने शोधप्रबन्ध में की थी, उसकी अक्षरशः पुष्टि घाणेराव भण्डार की प्रति से होती है। इस दृष्टि से यह अंश द्रष्टव्य है___ अन्तिम से पूर्व के तीन पत्र प्रति में उपलब्ध नहीं हैं। अन्तिम पृष्ठ पर सुहस्तीसूरि की पदप्रतिष्ठा, श्रीयक तथा स्थूलभद्र के स्वर्गमन, कवि की अल्पज्ञता आदि का उल्लेख है। क्या यह सोलहवें अधिकार का ही भाग है ? शायद काव्य में एक और अधिकार था। उसमें स्थूलभद्र के उपदेश से कोश्या के संयम ग्रहण करने का वर्णन अवश्य रहा होगा। अन्तिम पृष्ठ के एक पक्ष की संख्या, २००, का यही संकेत है कि यह सोलों से भिन्न किसी अन्य अधिकार के अन्तर्मत था। इस भाग में जो प्रशस्ति-जैसे सब हैं वे उसी सा के. अवयव.रहे होंगे। पर क्या इस पृष्ठ के साथ काव्य समाप्त हो गया था? यहां पुष्पिका तो नहीं है,
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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