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________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल १७६ अनुनीतिमतां वरः क्वचित् क्वचिदीालुरसौ क्षितीश्वरः। ... र अनुनीतिरपेक्षयाञ्चिता प्रतिपक्षेषु यदायतौ श्रिये ॥४.६६ युद्धवर्णन में जहाँ अपेक्षाकृत समासभित शैली की प्रधानता है, वहां शृंगार के चित्रण में उसकी सहजता उल्लेखनीय है । पुण्यकुशल ने. संयोग तथा विप्रलम्भ की पदावली में भी, पात्रों की मनःस्थिति के अनुरूप, विवेक करने का प्रयत्न किया है। विप्रलम्भ की भाषा विचित्र दैन्य तथा असहायता से अनुप्राणित है, जो विरही हृदय की वेदना को बिम्बित करती हैं। इसके विपरीत सम्भोग शृंगार के निरूपण में प्रयुक्त पदशय्या आह्लाद तथा यौवनसुलभ उल्लास से ओतप्रोत है। सातवें सर्ग में वनविहार तथा जलक्रीड़ा के अन्तर्गत प्रेमी युगलों की शृंगारिक चेष्टाओं को जिस भाषा में व्यक्त किया गया है, वह रसराज की सृष्टि के लिये यथोचित वातावरण निर्मित करती है। ___ अवसरानुकूल भाषा उद्देश्यपूर्ति में सहायक होती है, पुण्यकुशल इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से सुपरिचित है । देवगण बाहुबलि को मुष्टिप्रहार से विरत करने के लिये कलह के दुष्परिणाम, आत्मसंयम तथा मर्यादापालन की जो युक्तियां देते हैं। अनुप्रास की माधुरी तथा प्रांजलता ने उनकी प्रभावशालिता को दूना कर दिया है। निम्नोक्त पदावली में असीम कोमलता तथा मधुरता है। अयि बाहबले कलहाय बलं भवतो भवदायतिचार किमु । प्रजिघांसुरसि त्वमपि स्वगुरुं यदि तद्गुरुशासनकृत् क इह ॥ कलहं तमवेहि हलाहलकं यमिता यमिनोऽप्ययमा नियमात् । भवती जगती जगतीशसुतं नयते नरकं तदलं कलहैः ।। १७.६९-७० पुण्यकुशल की तूलिका शब्दचित्र अंकित करने में निपुण है । उसके शब्दचित्र वर्ण्य विषय के स्वरूप को पूर्णतया हृदयंगम करके प्रस्तुत किए गये हैं । फलतः उनके अध्ययन से विषय अथवा व्यक्ति के समूचे गुण तथा व्यक्तित्व की समग्रता सहसा मानस पर अंकित हो जाती है । बाहुबलि हो अथवा आदिदेव का चैत्य, तक्षशिला का 'निकटवर्ती कानन हो अथवा सीमावर्ती मन्दाकिनी, पुण्यकुशल की प्रतिभा के स्पर्श से सभी विषय दीपित हो गये हैं । सिंहासनासीत बाहुबलि के प्रस्तुत चित्र में उसकी तेजस्विता मूर्त हो उठी है।.. । ५०. जहीहि मौनं रचयात्मकृत्यं सखोजने देहि दृशं मृगामि ।:.... : ... वधासि किं घनकुमुद्दशां संबोध्य नीतेति च काचिवाल्या ॥ वही, ६.२८ ५१. मौनमेवमनयाप्पुदीरिता यावदाधितवती,त्वधोमुखी। .... तावदेत्य सहसा लतान्तराच्छिश्लिषे प्रणयिनाऽथ मानिनी ॥ वही, ७,६३. .
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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