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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य १६२ के फलस्वरूप युद्ध की अवश्यम्भाविता का कारण बनकर अनुभव करता है" । भरत - बाहुबलि के इतिवृत्त के दिगम्बर तथा श्वेताम्बर रूपान्तरों में सबसे उल्लेखनीय एवं तात्त्विक भेद उनके संघर्ष की परिणति - युद्ध से सम्बन्धित है । पहनें सर्ग में वर्णित भरत और बाहुबलि की सेनाओं के विदिवसीय युद्ध का दोनों आधार -खोतों में प्रच्छन्न संकेत तक नहीं है । पुण्यकुमाल का यह वर्णन माघकाव्य के कृष्ण तथा शिशुपाल की सेनाओं के युद्ध ( सर्ग १८) पर आधारित है । भरत तथा बाहुबलि के द्वन्द्वयुद्ध और उसकी पूर्वकालिक घटनाओं के विवरण में जिनसेन और हेमचन्द्र के ग्रंथों में महान् अन्तर है। आदिपुराण के अनुसार दोनों पक्षों के प्रमुख मन्त्री भावी जनक्षय से भीत होकर 'धर्मयुद्ध' (द्वन्द्वयुद्ध) की घोषणा करते हैं । भरत तथा बाहुबलि बड़ी कठिनाई से मंत्रियों का आग्रह स्वीकार करते हैं (३६.४००४४) । त्रि.श.पु. चस्ति की भाँति भ० बा० महाकाव्य में उन उद्धत वीरों को नरसंहार से विरत करने का श्रेय देवताओं को दिया गया है, जो विभिन्न तर्कों से उन्हें सैम्ययुद्ध के दुष्परिणामों से अवगत करते हैं (१.५.४४५-५११ ) और उत्तम युद्ध विधि से शक्तिपरीक्षा करने को प्रेरित करते हैं ।" भ. बा. महाकाव्य में देवताओं के तर्क सात्त्विक रूप में भिन्न न होते हुए भी त्रि.श. पु. चरित की अपेक्षा अधिक समर्थ तथा विश्वासजनक हैं (१६.१४,४४-४५) । चक्रवर्ती भरत तथा तक्षशिलानरेश बाहुबलि प्रायः हेमचन्द्र की शब्दावली में एक-दूसरे को युद्ध का दोषी मानते हैं । पुण्यकुशल ने कल्पना की मालिश चढ़ाकर उसे अधिक आकर्षक बना दिया है ( १६.२६-२८) । हेमचन्द्र के अनुसार भरत के समान बाहुबलि भी देवताओं के अनुरोध से, द्वन्द्वयुद्ध द्वारा बलपरीक्षा का विकल्प स्वीकार कर लेता है (१.५.५१८ ) । इसके विपरीत भ.बा. महाकाव्य में बाहुबलि पहले तो सैन्य युद्ध निश्चय पर अडिग रहता है परंतु, अंततः, देवों के प्रति सम्मान के कारण, स्वयं द्वन्द्वयुद्ध का प्रस्ताव करता है (१९.५ε-६१) । के आदिपुराण में भरत तथा बाहुबलि के विविध द्वन्द्वों - जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध तथा बाहुयुद्धका वर्णन है । बाहुबलि को विजयोत्कर्ष के उस क्षण में भ्रातृपराजय के कुकर्म से आत्मग्लानि होती है। उसके हृदय में वैराग्य का प्रबल उद्रेक होता है और वह अपने ज्येष्ठ पुत्र को अभिषिक्त करके प्रव्रज्या ग्रहण करता है । कठोर तपश्चर्या के पश्चात् उसे कैवल्य की प्राप्ति होती है ( ३६.४५ - १८५) । पुण्यकुशल ने भरतबाहु- चरित के इस महत्त्वपूर्ण प्रकरण के निरूपण में त्रि.श.पु. चरित का अनुगमन किया १५. त्रि.श. पु. चरित, १.५.२०८. १६. तथापि प्रार्थ्य से वीर प्रार्थनाकल्पपादप । उत्तमेनैव युद्धेन युध्येथा माऽधमेन तु । वही, १.५.५१६.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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