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________________ हीरोभाग्य : देवविमलगणि १४५ अकबर के हृदय में दया तथा अहिंसा का उद्रेक करना केवल हीरविजय जैसे तपस्वी के लिये सम्भव था ( १४.११६) । अकबर बाबर का वंशधर तथा हुमाऊँ का पुत्र अकबर इतिहास का पराक्रमी सम्राट् है । काव्य में वर्णित उसकी दिग्विजय काल्पनिक होती हुई भी उसके शौर्य को रेखांकित करने में समर्थ है । कवि के शब्दों में उसमें ईश्वर के ऐश्वर्य, इन्द्र प्रभुत्व, सूर्य के तेज, निधिपति की उदारत्म तथा शेषनाग की सहिष्णुता ( पृथ्वी के पालन की क्षमता) का पूंजीभूत समन्वय है ( १०.५७) । सूर्य उसके प्रताप का पुनराख्यान है, वडवानल उसका प्रतिनिधि है, वज्र उसका प्रतिबिम्ब है, अग्नि उसके शरीर का प्रतिरूप है ( १०.५६) । वह अपने मित्रों के लिये अमृतलता है किन्तु शत्रुओं के लिये वृक्ष है ( १४.११० ) । उसकी इतिहास प्रसिद्ध सहिष्णुता काव्य में भी बिम्बित है। वस्तुतः काव्य में उसका धार्मिक स्वर अधिक मुखर है । वह धर्म के मर्म का परम जिज्ञासु है । वह अपनी धर्म - जिज्ञासा की पूर्ति के लिये, समय-समय पर विभिन्न मतावलम्बी दार्शनिकों तथा साधुओं से गम्भीर विमर्श करता है । इसी बलवती जिज्ञासा से प्रेरित होकर वह सुदूर गन्धार बन्दर से हीरविजय सूरि को बुलाता है । वह धर्म का वास्तविक स्वरूप जानने को सदैव लालायित है । इसी कारण वह आजीवन धर्म का तत्त्व सभी धर्मों में टटोलता रहता है । वह अनेकान्तवाद का सच्चा अनुयायी है । विद्वानों तथा तपस्वियों के प्रति उसके मन में अथाह श्रद्धा है । वह हीरविजय की निस्पृहता, सच्चरित्रता तथा धर्मनिष्ठा के समक्ष नतमस्तक हो जाता है और उनकी इच्छा के अनुसार, राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्त तथा जजिया आदि करों को समाप्त कर देता है, यद्यपि यह उसके राज्य की सुरक्षा तथा आय के अहित में था । उनके प्रभाव से ही वह आर्हत मत को सर्वोत्तम मानने लगता है। हीरविजय से सम्राट् का सम्पर्क धीरे-धीरे मैत्री में परिवर्तित हो गया । उनके निधन से अकबर को जो वेदना हुई, वह जैन साधु के प्रति उसकी श्रद्धा की सूचक है । अबुल फ़जल शेख अबुलफ़जल अकबर का आध्यात्मिक मित्र तया नीतिकुशल मन्त्री है । वह बहुत बाद में काव्य के मञ्च पर आता है । इसीलिये उसके चरित्र का काव्य में अधिक विकास नहीं हुआ है । वह इस्लाम दर्शन का पारगामी विद्वान् है । आचार्य हीरविजय के साथ वह इस्लाम दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों पर गम्भीर विचार करता है । सम्राट् अकबर तथा हीर सूरि की द्वितीय धर्मगोष्ठी शेख की चन्द्रशाला में होती है । वही सर्व प्रथम जैनाचार्य को सम्राट् को सभा में ले जाता हैं। यह
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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