SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हीरसौभाग्य : देवविमलगणि १४३ देवताओं द्वारा अमृत समाप्त कर देने पर क्षीरसागर का पुनः मन्थन किया जा रहा हो । उसके जलकण तारे बन कर फैल गये हैं (८.६५)। लोकव्यवहार पर आधारित अप्रस्तुत बहुत रोचक हैं। उनसे वर्ण्य भावों को वाणी मिली है । सान्ध्यराग ऐसा प्रतीत होता है मानों आकाशलक्ष्मी ने अपने प्रियतम चन्द्रमा के भावी आगमन की प्रसन्नता से शरीर पर कुंकुम का लेप कर लिया हो (७.३८) । अथवा देवांगनाओं के चरणों का मण्डन करती हुई प्रसाधिका के हाथ से गिर कर अलक्तकरस आकाश में फैल गया हो (४०)। तारों के वर्णन में कवि ने हृदयग्राही कल्पनाएं की हैं। तारे ऐसे लगते हैं मानों रात्रि के दुर्व्यवहार से पीडित दिन के योगी ने उसे शाप देकर चावल बिखेर दिये हों (७.६१) । अथवा स्वगंगा के तट पर, वियुक्त चकवों के अश्रुकण गिरे हों (७.६४) । सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल इन्द्र द्वारा अपनी प्रिया--पूर्व दिशा -- को भेंटा गया विकसित श्वेत कमल है (७.७२) । धान से भरा खेत पृथ्वी का मणिजटित नील निचोल (लहंगा) प्रतीत होता है (१.५६) । सिन्दूर से भरी मांग से युक्त, शासनदेवी की केशराशि ऐसी लगती है मानों जलपूर्ण मेघमाला में बिजली चमक रही हो (८.१६४)। चरित्र-चित्रण __ हीरसौभाग्य में पात्रों का रोचक वैविध्य है । धनवान् व्यापारी, रूपवती नारियां, वीतराग तपस्वी, पराक्रमी सम्राट् तथा दार्शनिक मन्त्री, सभी एक साथ कन्धा मिलाते दिखाई देते हैं। प्रत्येक का अपना व्यक्तित्व है। उनका चित्रण परम्परागत ढर्रे पर नहीं हुआ। पात्रों के व्यक्तित्व का यह निजी वैशिष्ट्य हीरसौभाग्य की विभूति है। होरविजयः त्याग, करुणा, निस्स्पृहता आदि दुर्लभ मानवीय गुणों के कारण काव्यनायक हीरविजय का व्यक्तित्व अत्युच्च भूमि पर प्रतिष्ठित है। राजसी वैभव तथा दार्शनिक पाण्डित्य भी उसकी आभा को मन्द करने में असमर्थ हैं। तापसव्रत की रेखा उसके जीवन को दो भागों में विभक्त करती है। वह विविध गुणों की खान है। उसमें सूर्य के तेज, बृहस्पति की प्रतिभा, योद्धा की कर्तव्यनिष्ठा तथा राम की विनम्रता का स्पृहणीय सामंजस्य है (६.५) । उसका सौन्दर्य हृदय में गुदगुदी पैदा करता है। हीरविजय विनीत तथा कुशाग्रबुद्धि युवक है। उसने अपनी प्रत्युत्पन्न मति से, थोड़े दिनों में ही, समस्त शास्त्रों में सिद्धहस्तता प्राप्त कर ली। उसकी प्रतिभा तथा नम्रता के कारण गुरु के समूचे प्रयत्न इस प्रकार सफल हो गये जैसे उर्वर भूमि में बोया गया किसान का बीज (३.७६) । अपनी बहुश्रुतता के कारण वह वाग्देवी का साक्षात् अवतार प्रतीत होता है ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy