SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हीरसौभाग्य : देवविमलगणि १४१ गया है। उसकी भुजाएं चंचल लक्ष्मी को बांधने के पाश हैं (३.१०७)। उसके दाँतों की राजहंसों से तुलना करना (३.८७) भी कम हास्यास्पद नहीं है । शासन देवी के कान नौ के अंक के समान इसलिये प्रतीत होते हैं क्योंकि उसने सौन्दर्य में अठारह (EX २) द्वीपों की महिलाओं को पछाड़ दिया है (८.१४२) । उसकी भौंहों के वर्णन की यह कल्पना भी कम चमत्कारजनक नहीं है। यतिराज हीरविजय से जूझते- जूझते कामदेव का शरीर जर्जर हो गया है । चलते समय उसे सहारा देने के लिए विधि ने शासन देवता की भौंहों की लाठी बना दी है (८.१४८) । अत्यधिक विस्तार के कारण देवविमल के सौन्दर्य वर्णन में पिष्ट-पेषण भी हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है कि वह ज्यों-ज्यों अपने पात्रों के शारीरिक सौन्दर्य का चित्रण करता गया, उसकी कल्पनाशीलता चुकती गयी। इसीलिये उसने अष्टम सर्ग में कई पूर्ववर्ती भावों की आवृत्ति की है । कुमार हीर का दीक्षा-पूर्व अलंकरण दमयन्ती की विवाह-पूर्व सज्जा से अत्यधिक प्रभावित तथा प्रेरित है, इसका संकेत पहले किया जा चुका है। हीरसौभाग्य का अप्रस्तुतविधान उपर्युक्त दोनों प्रकरणों से अप्रस्तुतविधान में देवविमल की निपुणता का पर्याप्त परिचय मिलता है। हीरसौभाग्य वक्रोक्ति प्रधान काव्य है। देवविमल के पास अप्रस्तुतों का अक्षय भण्डार है, जो उसकी उत्कृष्ट कल्पनाशीलता का द्योतक है। देवविमल की ये कल्पनाएँ अधिकतर उत्प्रेक्षा के रूप में प्रकट हुई हैं२५ यद्यपि अतिशयोक्ति, श्लेष, उपमा, अप्रस्तुतप्रशंसा आदि भी उनकी अभिव्यक्ति के माध्यम बने हैं । कालिदास के पश्चाद्वर्ती कवियों में स्वभावोक्ति से जो विमुखता दिखाई देती है, उसकी चरम परिणति नैषध में हुई है। हीरसौभाग्य नैषधचरित की परम्परा की अन्तिम समर्थ कड़ी है। अप्रस्तुतविधान की कुशलता के कारण ही देवविमल को संस्कृत कवियों में सम्मानित पद प्राप्त है। देवविमल के अप्रस्तुत तीन मुख्य वर्गों में बांटे जा सकते है - शास्त्रीय कल्पनाएँ, परम्परागत अप्रस्तुत तथा लोकजीवन से गृहीत कल्पनाएं ! देवविमल के शास्त्रीय अप्रस्तुत दर्शन-शास्त्र के अतिरिक्त पुराणों तथा ज्योतिष से लिये गये हैं। हीरयौभाग्य के कुछ शास्त्रीय अप्रस्तुत श्रमसाध्य हैं, यद्यपि उनमें श्रीहर्ष के शास्त्रीय उपमानों की क्लिष्टता नहीं है। 'नश्यन्निवान्यजनहत्परमाणुमध्ये' (१०.१०६) का मर्म तब तक समझ में नहीं आ सकता जब तक यह २४३. देखिये-८.४४-२.४७; २.२५-८.६७; २.४८-८.४०; ३.११०-८.५०; ३.११४.८.७६ आदि-आदि । २५. इहाखिलेऽपि काव्ये केवलमुत्प्रेक्षव । टीका, १.६६.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy